यशपाल

yashpal

उपेन्द्रनाथ अश्क

और अधिकउपेन्द्रनाथ अश्क

     

    यशपाल से मेरा परिचय न घना है न पुराना−उस इंद्रधनुष के परिचय-सा है, जिसका एक सिरा नीचे के बादलों में गुम हो और दूसरा आकाश के विस्तार में खो गया हो और दो-चार बार ही जिसकी झलक मुझे मिली हो।
     
    यशपाल के अतीत को मैं अधिक नहीं जानता, केवल इतना सुना है कि स्व. चंद्रशेखर आज़ाद की 'सोशलिस्ट रिपब्लिकन आमी' से उनका संबंध था। उन्होंने 'बम की फ़िलॉसफ़ी' नामक पेंफ़लेट लिखा था, जिसकी उन दिनों बड़ी चर्चा थी। लाहौर षड्यंत्र तथा गवर्नर की गाड़ी को उड़ाने आदि के मामलों से उनका गहरा संबंध था। बहुत समय तक वे पुलिस के हाथ नहीं आए। जब आए तो चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हो चुके थे। तब वे इलाहाबाद में पकड़े गए। आठ वर्ष की सज़ा हुई। 1937 में कांग्रेस ने जब सरकार से सहयोग किया और प्रांतों में कांग्रेस सरकार बनी तो यशपाल भी रिहा हुए। जेल ही में उनकी शादी प्रकाश जी से हो गर्इ थी, जो स्वयं क्रांतिकारिणी रही थीं। अथवा यूँ कहना चाहिए कि प्रकाश जी ने जेल के अधिकारियों से प्रार्थना कर श्री यशपाल से शादी कर ली थी। अभी यशपाल की सज़ा काफ़ी शेष थी, पर बीमार हो जाने और डाक्टरों के यक्ष्मा घोषित करने से उन्हें छोड़ दिया गया। पंजाब के किस प्रदेश में उन्होंने जन्म लिया, कहाँ पले, पढ़े? क्रांतिकारी बनने से पहले क्या करते थे? क्रांतिकारी दल में उनका क्या स्थान था? ये और उनके अतीत की बीसियों बातों का मुझे कोई ज्ञान नहीं। उनका अतीत काफ़ी घटनामय रहा है, भविष्य कैसा रहेगा, इसके संबंध में भी मैं कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि पुरुष का भाग्य जब देवता नहीं जानते तो मैं मनुष्य क्या जानूँगा कुछ वर्षों के संपर्क में उनकी जो झलक मैंने व्यक्तिगत रूप से देखी वही मेरी निधि है और उसी की झलक में दूसरों को दिखा सकता हूँ।
     
    यशपाल को पहली बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के शिमला अधिवेशन में देखा और इस बात के अतिरिक्त कि मैंने क्रांतिकारी यशपाल को देख लिया है, अन्य किसी बात का प्रभाव मेरे मन पर नहीं रहा। बात यह थी कि सन् 1628-29 की सनसनियों का ज़माना बीत चुका था, भगतसिंह को और राजगुरु को फाँसी लगे वर्षों हो गए थे। कांग्रेस असहयोग की नीति को छोड़कर सरकार के साथ सहयोग कर रही थी इसलिए यशपाल उस ज़माने की राजनीति में महत्व खो बैठे थे। यदि मुझे कहीं उन्हें उस ज़माने में देखने का अवसर मिलता जब देश भर में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' की सरगर्मियों के चर्चे थे तो मुझे विश्वास है कि न केवल यशपाल को देखने की प्रबल उत्कंठा मेरे मन में होती, वरन् उस भेंट का गहरा प्रभाव भी मेरे मन पर रहता। 1938 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर पधारने वाले प्रतिष्ठित सज्जनों में से वे भी एक थे और उनकी अपेक्षा कई अन्य व्यक्तित्व मेरे लिए अधिक महत्व रखते थे, इसलिए उस भेंट को मैंने महत्व नहीं दिया।
     
    लेकिन शिमला के उस अधिवेशन की अस्पष्ट सी याद आज भी मेरे हृदय में बनी हुई है। हम लोग चोर बाज़ार की नई-नई बनी धर्मशाला में ठहरे थे। ऊपर की मंज़िल पर थियेटर अथवा सिनेमा का हॉल था। हॉल का फ़र्श लकड़ी का था। वहीं हम लोगों के बिस्तर लगे थे। यह जानकर कि क्रांतिकारी यशपाल भी हॉल ही में ठहरे हैं, उन्हें देखने की उत्सुकता हुई। बच्चन, सुमन आदि स्टेज पर बिस्तर जमाए थे, वहीं मैं यशपाल को देखने गया। पहली दृष्टि में मुझे यशपाल में क्रांतिकारियों की-सी कोई बात न लगी अथवा यह कहना ठीक होगा कि अपनी कल्पना में क्रांतिकारियों का जो रूप मैंने बना रखा था, यशपाल उस पर पूरे न उतरे। मैंने क्रांतिकारी अज्ञेय का जेल से छूटने के बाद लिया गया चित्र देखा था। हृष्ट-पुष्ट देह, लंबे-लंबे घुंघराले बाल, गहरी अनुभूति-प्रवण आँखें, नंगे शरीर पर धोती और चादर। यही चित्र 'भग्नदूत' में छपा भी था। उसी के अनुरूप मैंने यशपाल की कल्पना की थी। हृष्ट-पुष्ट देह की बात न सही, लेकिन लंबे बालों और कुछ बेपरवाही के भाव की आशा तो थी ही। मैंने देखा−बढ़िया सूट पहने हुए मँझले कद और साँवले रंग का एक युवक, सफ़ाई से कटे-छटे छोटे बाल, चौड़े खुले-खुले अंग, मोटे ओंठ, घनी भवें और पिचके हुए कल्ले। किसी क्रांतिकारी के बदले मुझे यशपाल किसी बिगड़े हुए ईसाई युवक-से लगे। तब मेरी उत्सुकता का केंद्र यशपाल के बदले बच्चन अधिक थे। मैं नया-नया उर्दू से हिंदी में आया था। सरल होने के कारण बच्चन की कविताएँ मुझे बड़ी अच्छी लगती थीं। उनका काव्य था भी अपनी जवानी पर और,
    इस पार प्रिये तुम हो मधु है,
    उस पार न जाने क्या होगा?
    तथा
    मिट्टी का तन मस्ती का मन,
    क्षण भर जीवन, मेरा परिचय।
    आदि बच्चन की कविताएँ मुझे कंठस्थ थीं। इसलिए एक नज़र यशपाल को देखने के बाद मेरा ध्यान बच्चन की ओर मुड़ गया। बिलकुल उसी तरह जैसे अजायबघर में आदमी प्राचीन काल की किसी अनूठी चीज़ को एक नज़र देख कर फिर नए ज़माने के अजायबात को देखने के लिए बढ़ जाए।
     
    लेकिन सभी मेरे जैसे हों, यह बात नहीं। दिल्ली के पंडित चंद्रशेखर शास्त्री सुबह शाम यशपाल के पीछे पड़े रहते थे। वे 'हिटलर महान' और 'मुसोलिनी महान' का सृजन करने के बाद उन दिनों भारतीय क्रांतिकारियों के इतिहास का निर्माण कर रहे थे। लिखे मसौदे का पुलिंदा बग़ल में दबाए, वे सुबह-सुबह यशपाल को घेर लेते थे। मेरा दुर्भाग्य कि तब मुझे शास्त्री जी की विद्वता की अपेक्षा उनकी पतली दुबली, सूखे बाँस-सी लंबी काया, इस पर भी अपने शक्ति संपन्न होने का दंभ, उनका 'हिस्ट्री' को 'हिश्ट्री' कहना, अपने 'हिश्ट्री' ज्ञान का डंका बारहों घंटे पीटना और अपने सामने श्री जदुनाथ सरकार से लेकर श्री जयचंद विद्यालंकार तक सभी इतिहासज्ञों को हेय समझना ज़ियादा अच्छा लगता था। आज किसी ऐसे आदमी से मिलूँ तो मेरे मन में दया उपज आए और मैं चुप रहूँ, पर तब मुझे उन्हें बनाना भाता था। फक्कड़पने के दिन थे, क्या कहते और क्या बकते हैं, कभी इस पर ध्यान न दिया था। एक सुबह हम जाकू की सैर को गए तो शास्त्री जी से मेरी झड़प हो गर्इ, छेड़ा पहले उन्होंने था, मैंने उत्तर दिया तो वे झुँझला उठे। स्वयं मज़ाक़ करके दूसरे के मज़ाक़ को सहना हर किसी के बस का है भी नहीं। झगड़ा होते-होते बचा। तनाव को कम करने के लिए मैं हास्य-रस के कुछ शेर सुनाने लगा। तभी शास्त्री जी ने थक कर जमाई ली। मैंने शेर पढ़ा−
    'ऊँट जब उठता है जंगल में जमाही लेकर
    याद आ जाता है नक़्शा तेरी अंगड़ाई का'
    मित्र ठहाके पर ठहाके लगाने लगे। बच्चन, सुमन और दूसरे मित्रों के साथ-साथ यशपाल भी थे। मुझे अच्छी तरह स्मरण है, वे चुपचाप अपने बड़प्पन को लिए-दिए साथ-साथ चलते रहे। बच्चन, सुमन तथा अन्य मित्र हँसी-ठठोली में भाग लेते रहे, पर यशपाल मुस्कुराए शायद हों, यद्यपि इसकी याद मुझे नहीं, परंतु एक बार भी उनके कंठ से ठहाका नहीं निकला।
     
    और शिमला से जब मैं लौटा तो पंजाबियों के सामने हिंदी कवियों के निजी मतभेद1 के प्रदर्शन और उसमें बच्चन के प्रमुख भाग लेने के बावजूद (जिसमें और के सामने हिंदी का सिर ऊँचा देखने की इच्छा रखने वाले हर पंजाबी की भाँति मुझे भी दुख पहुँचा) जाकू की वह सैर और उसकी ऊँचाई पर बैठ कर सुनी हुई कविताओं का माधुर्य सदा के लिए मेरे मन पर ख़ुशगवार असर छोड़ गया। यशपाल से भी शिमला में भेंट हुई है, इस बात को मैंने कोई महत्व नहीं दिया।
     
    लेकिन धीरे-धीरे शिमले की वह भेंट, जिसमें हम एक दूसरे से बोले तक नहीं, महत्व प्राप्त कर गई और जब बारह-तेरह साल बाद गत वर्ष अल्मोड़ा में उनसे मिला तो मैंने उसी भेंट का तार पकड़ा। बात यह हुई कि यशपाल से मिलने पर भी जो परिचय गहरा न हुआ था, वह बिना मिले गहरा होता गया और उसी अनुपात से शिमले की वह भेंट महत्व प्राप्त करती गई।
     
    शिमला से आने के बाद मैंने सहसा 'विशाल भारत' में एक कहानी देखी। शीर्षक था 'परसराम' और रचयिता का नाम लिखा था—यशपाल। उन दिनों मेरे परिचित में दो यशपाल थे। लाहौर के यश जी—'हिंदी मिलाप' के मालिक महाशय ख़ुशहालचंद के छोटे लड़के−जो उन दिनों अपने भाई श्री रणवीरसिंह 'वीर' के अनुकरण में कहानी लिखने लगे थे और दूसरे दिल्ली के यशपाल−श्री जैनेंद्र के सहृदय भानजे−जो अपने मामा की हर गतिविधि का ब्योरा रखने के साथ स्वयं भी कभी-कभी कहानी लिख लेते थे। लाहौर के यश जी की कहानी 'विशाल भारत' में छपी है, इसका विश्वास न था, क्योंकि लाहौर के यश जी तब बहुत छोटे थे और फिर 'विशाल भारत' में तब हर किसी की चीज़ छपनी भी न थी। जैनेंद्र 'विशाल भारत' के लेखकों में से थे। ख़याल यही हुआ कि दिल्ली वाले यशपाल की कहानी है और मैं कहानी पढ़ने लगा।
     
    कहानी पंजाब के पहाड़ी प्रदेश की थी। चंद सतरें पढ़ने पर फिर ख़याल आया कि शायद लाहौर के यश जी की है, पर ज्यों-ज्यों मैं कहानी पढ़ता गया, महसूस करता गया कि यह उन दोनों में से किसी की भी नहीं हो सकी। कहानी के अंत पर पहुँच कर यह विश्वास और भी पक्का हो गया। दोनों की प्रतिभा से मैं भिज्ञ था। दोनों में से कोई भी ऐसी सुंदर कहानी लिख सकता है, इसकी कोई संभावना न थी। तब सहसा ख़याल आया कि कहीं यह क्रांतिकारी यशपाल की कहानी न हो? किसी से सुना था कि वे भी कहानी लिखते हैं और लखनऊ से पत्र निकालने जा रहे हैं। कुछ दिन बाद मैंने अनारकली के चौराहे में फ़ज़ल के स्टाल पर 'विप्लव' के दर्शन भी किए। ख़रीदने की शक्ति तब थी नहीं, 'विप्लव' को देख कर मुझे पूरा विश्वास हो गया कि कहानी क्रांतिकारी यशपाल ही की है। इस विश्वास के साथ शिमला की वह भेंट विस्मृति के गर्त से निकल कर सामने आ गई।
     
    यदि मैं लाहौर रहता। 'विप्लव' ख़रीद कर अथवा कहीं से लेकर उसमें यशपाल की चीज़ें पढ़ता तो मैं निश्चय ही उस संक्षिप्त परिचय को घनिष्ठ बनाने का प्रयास करता। पर मैं प्रीतनगर चला गया। प्रीतनगर नाम से नगर था, पर उसमें उस समय केवल 19 कोठियाँ बनी थीं और लाहौर छोड़ अटारी की सड़क से भी दस मील दूर मध्य पंजाब के देहात में बन रहा था। वहाँ जाकर मैं साहित्यिक वातावरण से एक दम दूर हो गया।
     
    बहुत दिन बाद, याद नहीं, प्रीतनगर में, लाहौर अथवा दिल्ली में, मैंने यशपाल की एक और कहानी पढ़ी—'ज्ञानदान' और यद्यपि न मुझे कहानी के आधारभूत विचार में नवीनता लगी और न 'परसराम' सा प्यारापन, पर उससे यशपाल के कहानीकार की शक्तिमत्ता का ज़रूर आभास मिला। उर्दू के प्रसिद्ध कहानीकार मंटो की भाँति यशपाल का कथाकार भी अपने पाठकों को चौंका देना पसंद करता है। मंटो की इस 'शॉक टेकनिक' का उल्लेख करते हुए उर्दू की एक दूसरी प्रसिद्ध कथाकार 'इस्मत' ने लिखा है कि मंटो को, बातचीत हो अथवा साहित्य, अपने सुनने और पढ़ने वालों को चौंकाना अधिक रुचिकर है। यदि लोग साफ़-सुथरे कपड़े पहने बैठे हों तो मंटो वहाँ इस लिए शरीर पर मिट्टी मले पहुँच जाएगा कि लोग उसे देख कर चौंक पड़ें। यशपाल के संबंध में यह बात कही जा सकती है या नहीं, यह मैं नहीं जानता, हालाँकि इसमें संदेह नहीं कि मंटो ही की तरह यशपाल की कई कहानियों में यह चौंका देने वाला गुण वर्तमान है। 'शानदान' के बाद 'प्रतिष्ठा का बोझ' और 'धर्मरक्षा' इसके उदाहरण हैं, पर यशपाल केवल चौंकाने के लिए नहीं चौंकाते, उन्होंने अपने नए कहानी संग्रह 'फूलो का कुर्ता' की प्रथम कहानी अथवा पुस्तक का भूमिका में अपनी इन कहानियों के उद्देश्य का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि बदली स्थिति में भी परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या से क्या हुआ जा रहा है, समाज अपने आदर्शों को ढकने के प्रयास में कितना उघड़ता चला जा रहा है, प्रगतिशील लेखक यही बनाना चाहता है और समाज को उसकी बातें बड़ी उघड़ी-उघड़ी लगती है।
     
    जो भी हो, इन कहानियों के मुक़ाबले में कहीं सुंदर कहानियाँ यशपाल ने लिखी हैं, जिनकी आर्द्रता और संवेदना, जिनके आधारभूत विचारों की यथार्थता और उस यथार्थता को कहानी में रखने के ढंग की नवीनता अपूर्व है। दुर्भाग्य से यशपाल कहानी का नाम रखने में सतर्कता से काम नहीं लेते, इसलिए इस समय जब कई कहानियों के नाम याद आ रहे हैं, अकसर वे भूल गए हैं, केवल उनकी स्मृति शेष है। 'पराया मुख', 'राज', 'उसकी जीत', 'गडेरी', 'धर्म युद्ध' और 'ज़िम्मेदारी' तो बहुत ही सुंदर बन पड़ी है। 'सन्यास', 'दो मुँह की बात', सोमा का साहस', 'दूसरी नाक' आदि कितनी ही कहानियाँ हैं, जो दोबारा पढ़ने पर भी उतना ही आनंद देती हैं।
     
    लेकिन मैं 1947 तक 'परसराम' और 'ज्ञान दान' के अतिरिक्त यशपाल की कोई कहानी न पढ़ पाया। प्रीतनगर से मैं सीधा ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में आया और यद्यपि मेरी आर्थिक दशा उतनी बुरी न रही, मेरा घरेलू जीवन काफ़ी विषम रहा और दफ़्तर के काम और अपने लेखन-कार्य के बाद पढ़ने का समय कम ही मिला। फिर उन दिनों मैं अधिकतर नाटक लिखता था और मेरी आदत है कि नाटक लिखता हूँ तो (यदि पढ़ने का समय हो तो) नाटक ही पढ़ता हूँ। एक-दो बार फतेहपुरी की एक दुकान पर यशपाल की पुस्तकें दिखार्इ दीं, पर ख़रीद न पाया। जिस प्रकार यशपाल कहानी के शीर्षक को चिंता नहीं करते उसी प्रकार मुख-पृष्ठ पर ध्यान नहीं देते। पार्ट पेपर और जिल्द की बात तो दूर रही, अच्छा क्वालिटी का सफ़ेद काग़ज़ भी नहीं लगाते। यशपाल का ख़याल है कि जनता महँगी पुस्तकें नहीं ख़रीद सकती। पर मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अच्छी पुस्तक के साथ अच्छा मुख-पृष्ठ भी चाहता हूँ और फिर मेरा ख़याल है कि जो लोग रोज़ सिनेमा देख सकते हैं, वे चाहें तो, महीने में एक-दो महँगी पुस्तकें भी ख़रीद सकते हैं। दूसरी बातों के अतिरिक्त यह बात भी मेरे मार्ग की बाधा बनी। मैं प्रायः पुस्तकें ख़रीद कर पढ़ता हूँ और अपने निजी पुस्तकालय में उन्हें अर्जित करता हूँ। यशपाल की पुस्तकें इसके लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं, जब तक कि उन पर फिर से जिल्द न बँधाई जाए।
     
    दिल्ली में तीन साल बिता कर मैं बंबई चला गया। आर्थिक कठिनाई न रही, पर जीवन और भी व्यस्त हो गया। तभी 'नया साहित्य' में मैंने यशपाल की एक और कहानी 'साग' पढ़ी। उसका व्यंग्य और तीखापन पूर्व परिचित था। उन्हीं दिनों मैं एक दिन गिरगाम में 'हिंदी ग्रंथ रत्नाकार' किसी काम से गया और यशपाल की जितनी भी पुस्तकें दुकान पर थीं, ख़रीद लाया।
     
    ख़रीद लाया पर पढ़ने का अवसर फिर भी न मिला। केवल एक पुस्तक पढ़ पाया 'पार्टी कामरेड'। मेरी आदत है अगर मैं अपनी कोई चीज़ लिखता हूँ, बीच ही में किसी दूसरे की चीज़ पढ़ने लगता हूँ। यशपाल का सेट नया-नया लाया था, उस समय जाने मैं किसी फिल्मी कहानी का सिनारियो लिख रहा था या अपना नाटक, लिखते-लिखते जी कुछ घबराया तो यशपाल के सेट में सबसे छोटी पुस्तक उठा कर पढ़ने लगा। वहीं कुर्सी पर पीठ को पीछे लगाए, टाँग मेज़ पर टिकाए सारी पुस्तक एक ही बार में पढ़ गया। पुस्तक बड़ी नहीं है, पर मैं काम में रत था और उस स्थिति में मेरा सारी की सारी पुस्तक को पढ़ जाना कम से कम उसके सबसे बड़े गुण—मनोरंजकता का तो द्योतक है ही। वहीं बैठे-बैठे मैंने यशपाल को एक लंबा पत्र 'पार्टी कामरेड' के गठन और उसकी कला की सुंदरता के संबंध में लिखा।
     
    शिमला की उस भेंट के बाद यशपाल को यही मेरा पहला पत्र था। यशपाल ने उसका उत्तर भी दिया, पर बंबई के व्यस्त जीवन में यह पत्र-व्यवहार अधिक दिन न चल सका। यशपाल की कहानियों का सेट भी उसी तरह पड़ा रहा। कुछ नई किताबें आईं, रैक की पुरानी किताबें आलमारी में चली गईं। फिर जब 1946 में मैंने फ़िल्म की नौकरी छोड़ दी तो मेरी पत्नी दूसरे सामान के साथ पुस्तकें भी लाहौर ले गईं और 'हिंदी ग्रंथ रत्नाकर' गिरगाम बंबई से ख़रीदा हुआ यशपाल का वह सेट उस समय तक मेरे हाथ न आया जब तक मैं अपनी बीमारी के छह महीने सेनेटोरियम में काट कर, पंचगनी ही में बाहर एक बंगले में न आ गया। समय काफ़ी था। दिन-रात वर्षा होती थी। लिखने-पढ़ने के अतिरिक्त और कोई काम न था। लाहौर में और तो बहुत कुछ रह गया, पर पुस्तकें बच गईं। स्थान के तंगी के कारण भाई साहब ने उन्हें जलंधर पहुँचा दिया था, वहाँ से वे वापस बंबई होती हुई पंचगनी पहुँची। यशपाल की कहानियों के जितने संग्रह उस सेट में थे, वे सब मैंने एक साथ पढ़ डाले।
     
    हिंदी कथा साहित्य में, जैनेंद्र के पथ-भ्रांत होने के साथ कई भावी कथाकार अँधेरे में टामकटोये मारने लगे थे। प्रेमचंद जब जीवित थे तो कथाकारों की एक अच्छी-ख़ासी संख्या कहानी साहित्य का भंडार भर रही थी। तब उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी कहानियों के अनुवाद रहते थे। लेकिन जब प्रचार कुशल जैनेंद्र अपनी अतुल प्रतिभा किंतु परिमित निधि के साथ बरबस प्रेमचंद के आसन पर आ बिराजे तो कई कथाकार अपना मार्ग छोड़ उनका अनुकरण करने लगे। परंतु जैनेंद्र तो कहानी का अंचल छोड़ वर्धा के विचारकों के पथ पर बढ़ गए और हिंदी के कथाकार अनायास भटक गए।
     
    यशपाल इस बीच में धीरे-धीरे अपने पाँव जमाते गए और समय आया फि जैनेंद्र के बाद जो स्थान रिक्त हो गया था, उसे उन्होंने भर दिया। अब फिर हिंदी कहानी में बढ़ती के लक्षण दृष्टि-गोचर हो रहे हैं और वह खाई भरती-सी दिखाई दे रही है, जो जैनेंद्र के पथ-भ्रांत होने से हिंदी कथा-साहित्य की राह में अनायास या गई थी।
     
    अज्ञेय इस बीच में अवश्य लिखते रहे, पर अज्ञेय के लिखने की गति कभी तेज़ नहीं रही। दिनों तेवर चढ़ाये मौन रहकर जैसे वे कभी अनायास बड़े प्यारे ढंग से मुस्कुराने लगते हैं, इसी प्रकार महीनों की चुप्पी के बाद उनकी लेखनी कभी कोई सुंदर कहानी सृजती है। फिर अज्ञेय की कहानियाँ सर्व साधारण के लिए ज्ञेय भी नहीं होतीं। आलोचक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन पाठकों के जिस 'द्रविड़ प्राणायाम' के प्रति सहानुभूति रखता है, कहानीकार अज्ञेय नहीं, इसलिए प्रेमचंद और जैनेंद्र अपनी कृतियों की लोकप्रियता और बोधगम्यता के कारण साहित्य में जो गति पैदा कर सके और जिस प्रकार दूसरों को साथ मिला सके, अज्ञेय नहीं कर सके।
     
    प्रेमचंद और जैनेंद्र के बाद हिंदी में लोकप्रिय सामाजिक कहानियों का जो अभाव मुझे हिंदी के पाठक की हैसियत से खटकता था, वह यशपाल की कहानियों को पढ़ कर बड़ी हद तक दूर हो गया। देश का विभाजन हो जाने से लाहौर हमारे लिए पराया हो गया था। मित्रों की सन्निकटता के कारण बीमारी के बाद स्वस्थ होकर हम इलाहाबाद बसने की सोच रहे थे। मेरे मन में कई बार यह विचार उठता था कि इलाहाबाद रहे तो लखनऊ जाने का अवसर अवश्य मिलेगा। लखनऊ जाऊँगा तो यशपाल से अवश्य मिलूँगा। शिमला के उस हलके से परिचय पर समय की जो धूल पड़ गई है, उसे झाड़ कर कुछ गहरा बनाऊँगा।
     
    लेकिन जब मैं लगभग डेढ़ साल पंचगनी में गुज़ार कर और फ़िल्म में कमाया बारह-पंद्रह हज़ार रुपया ठिकाने लगा कर, इलाहाबाद आया तो ऐसे संघर्ष में रत हो गया जैसा पहले जीवन में कभी नहीं किया। यूँ तो मेरा सारे का सारा जीवन संघर्षमय रहा है, लेकिन एक ही बरस में जैसा एकाग्र संघर्ष मुझे इलाहाबाद आते ही करना पड़ा, वैसा कभी नहीं किया। यही कारण था कि दो बार लखनऊ जाने पर भी मैं यशपाल से न मिल सका। फिर जब एक दिन लखनऊ में समय निकाल कर उनसे मिलने चला तो मालूम हुआ कि सरकार ने उन्हें नज़रबंद कर दिया है।
     
    पिछले वर्ष2 गर्मी का एक डेढ़ महीना काटने के लिए मैंने अल्मोड़ा जाने का निर्णय किया। रास्ते में दो दिन काम से लखनऊ सका। यशपाल के संबंध में पता चलाया तो मालूम हुआ कि सरकार ने छोड़ तो दिया है पर लखनऊ से निकाल दिया है और वे अपने निष्कासन का समय भुवाली में काट रहे हैं।
     
    भुवाली अल्मोड़ा के मार्ग ही में है। यह ख़बर सुन कर मुझे प्रसन्नता हुई। सोचा कि अल्मोड़ा में रहने-खाने का प्रबंध हो जाए तो फिर एक दिन आकर यशपाल से भी पुराने परिचय के तार नए सिरे से जोड़े जाएँ।
     
    अल्मोड़ा मैं पंत जी के कारण गया था। उनके अतिरिक्त मैं वहाँ किसी को न जानता था। 'देवदार होटल' की एक छोटी सी कॉटेज, जो एक बड़ी सुरम्य घाटी के किनारे बनी थी, पंत जी ने मेरे लिए तय कर रखी थी। नौकर भी चंद दिन में मिल गया। श्री देव दा पंत, श्री हरीश जोशी, श्री गणेश, श्री धर्मचंद और अन्य बंधुओं के स्नेह में अल्मोड़े का प्रवास सुखद लगने लगा। इतने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छुट्टियाँ हो गईं और 'इपटा' के कुछ कार्यकर्ता तथा लखनऊ और ग्वालियर के कुछ युवक भी अल्मोड़ा आ पहुँचे, जिन में लखनऊ की स्टूडेंट यूनियन के मंत्री भी थे। उन्हीं से मैंने एक दिन भुवाली चल कर यशपाल से मिलने की इच्छा प्रकट की। हम अभी प्रोग्राम बना ही रहे थे कि एक सुबह एक युवक ताराचंद ने आकर बताया कि यशपाल अल्मोड़ा पधारे हैं और डाक बंगले में ठहरे हैं। मैं उसी वक़्त डाक बंगले को चलने के लिए तैयार हुआ, पर मालूम हुआ कि वे देव दा से मिलने गए हुए हैं। वापसी पर वे मुझे मिलने आएँगे। उन्हें मेरे यहाँ होने का पता है और वे देव दा से मिलकर मेरे ही यहाँ आएँगे।
     
    देव दा, श्री सुमित्रानंदन पंत के बड़े भाई हैं। पूरा नाम देवीदत्त पंत है। एडवोकेट हैं। अल्मोड़ा कांग्रेस कमेटी के प्रधान हैं और अब तो भारत की पार्लियामेंट के सदस्य भी हैं। पार्लियामेंट में चोर बाज़ारी की समस्या पर बहस के मध्य अपने भाषण में उन्होंने सौंदर्य की चोर बाज़ारी का जो उल्लेख किया, वह उनके स्वभाव की चौंका देने वाली प्रवृत्ति, दलीलों की मौलिकता और प्रति-उत्पन्न-मति का द्योतक है। उनकी बातों में उलझे यशपाल शीघ्र न लौट सकेंगे, इस बात का मुझे पूरा विश्वास था। मेरा अनुमान ठीक ही निकला। क्योंकि यशपाल यद्यपि उनके पास से सीधे मेरे पास आए थे तो भी एक बजने को हो आया था।
     
    मेरी कॉटेज बड़ी सड़क से नीचे थी। सड़क से जब कोई आदमी मेरी कॉटेज को उतरता था तो अपनी खिड़की से मैं पहले ही जान जाता था। खाना खाकर लेटा ही था कि मैंने सीढ़ियों पर पाँवों की चाप सुनी और ताराचंद को मार्ग दिखाते पाया। मैं उठ कर बैठ गया। ताराचंद के पीछे यशपाल दुर्गा भाभी के साथ आ रहे थे। इन दस-बारह वर्षों में यशपाल का बड़प्पन कुछ और बढ़ गया था। उनके बाल पक गए थे। घनी काली भवें श्वेत हो गई थीं और चेहरे पर समय ने रेखाएँ अंकित कर दी थीं। दाँत उन दिनों वे निकलवा रहे थे, इसलिए कल्ले उनके धँसे हुए थे और जबड़े की हड्डियाँ उभरी हुई थीं। लेरिंजाइटिस अथवा उसी प्रकार का कोई गले का रोग उन्हें था। स्वर बड़ा भारी था, जो उनके व्यक्तित्व के बड़प्पन को और भी बढ़ाता था। वेशभूषा पूर्ववत् साहबी थी। मैं दरवाज़े के बाहर निकल आया। वे खुल कर मुझसे गले मिले। फिर उन्होंने दुर्गा भाभी3 से मेरा परिचय कराया। मैंने नौकर से चाय बनाने को कहा और हम अंदर या बैठे। पहली बात जो हमने की वह शिमला के कवि सम्मेलन के संबंध में थी। यशपाल भी उसे भूले न थे। जाकू की सैर, हमारा हास-हुलास और चंद्रशेखर शास्त्री के साथ मेरी झोड़ की सब बातें उन्हें याद थीं।
     
    यशपाल भुवाली से पैदल पहाड़ी प्रदेश की सैर करते आ रहे थे। अल्मोड़ा से तेरह-चौदह मील दूर, सेबों के बाग़ के किसी जागीरदार मालिक के यहाँ दो दिन का आतिथ्य स्वीकार कर और वहाँ के अतुल शिष्टाचार और सीमित मानसिक परिधि से घबराकर निकल भागे थे। इतने बड़े जागीरदार के अतिथि कुलियों के साथ पैदल ही मीलों की मंज़िल मारते पधारे हैं, यह देख कर उन लोगों को जो आश्चर्य और उत्कंठा हुई, उसका उल्लेख मज़ा ले-ले कर यशपाल ने किया। दुर्गा भाभी को शिकायत थी कि ये महाशय जहाँ बैठते हैं, अपना वाद-विवाद ले बैठते हैं। भला वे जागीरदार क्या समझे मार्क्स और उसके सिद्धांतों को!
     
    बातचीत में चाय आ गई। यद्यपि चाय का समय न था, लेकिन गर्म चाय के प्याले को यशपाल कभी नहीं ठुकराते। चाय के मध्य मैंने पूछा कि अल्मोड़ा कितने दिन रहने का इरादा है। यशपाल ने कहा कि अल्मोड़ा उन्हें पसंद आया है, यदि रहने का कोई प्रबंध हो जाए तो वे डेढ़-दो महीने वहीं काटेंगे। मैंने कहा कि यदि एक छोटे से कमरे में आपको असुविधा न हो तो जब तक मकान का प्रबंध नहीं हो जाता, आप यहाँ दूसरे कमरे में आ जाइए।
     
    यशपाल ने उठ कर कमरा देखा। पहले उसमें फ़र्श नहीं था। चुंकि पंद्रह-बीस दिन बाद कौशल्या—मेरी पत्नी—बच्चे को लेकर आने वाली थी, इसलिए मालिक मकान से कह कर मैंने उसमें फ़र्श लगवा दिया था। कमरा काफ़ी छोटा था, पर यशपाल ने कहा कि ठीक है और यदि मुझे कोई असुविधा नहीं तो उन्हें भी नहीं। फिर उन्हें कौशल्या के आने का ख़याल आया, पर मैंने कहा कि अव्वल तो कौशल्या बीस-एक दिन बाद आएगी, तब तक आपको मकान मिल जाएगा और यदि न भी मिला तो आप दोनों ऊपर कमरे में रह लीजिएगा और हम दोनों इस कमरे में रह लेंगे, और यशपाल संतुष्ट हो गए। मैं तो चाहता था कि वे उसी शाम उठ आएँ, पर यशपाल सब से पहले बाज़ार की सैर करना चाहते थे, इसलिए तय हुआ कि रात डाक बंगले ही में गुज़ारेंगे, दूसरे दिन सुबह ही मेरे यहाँ आ जाएँगे।
     
    यशपाल सात दिन मेरे साथ रहे। इस बीच में देव दा ने 'शक्ति कार्यालय' का एक कमरा उनके लिए ख़ाली करा दिया और यशपाल वहाँ उठ गए। 'शक्ति कार्यालय' मेरी कॉटेज से आध-एक फ़रलाँग ही के अंतर पर था, इसलिए, उन सात दिनों के निकट साहचर्य के बाद भी मैं जब तक अल्मोड़ा रहा, यशपाल से रोज़ साँझ-सबेरे, एक न एक बार भेंट होती रही। अल्मोड़ा के बाद भी मुझे दो-तीन बार उनसे लखनऊ में मिलने का अवसर मिला और मुझे यशपाल को कुछ निकट से देखने का संयोग प्राप्त हुआ।
     
    यशपाल में सबसे पहले जो बात मुझे अच्छी लगी और जिससे मुझे ईर्ष्या भी हुई, वह उनका लिखने का ढंग है। यशपाल दिन भर सैर-सपाटा और गप-शप करके रात-रात भर लिख सकते हैं। मैं जीवन में पहले भी अधिक सैर-सपाटा, इच्छा रहने के बावजूद, नहीं कर पाया और अब तो शरीर में उतनी शक्ति ही नहीं। यशपाल को सैर-सपाटे का बेहद शौक़ है। अज्ञेय की भाँति वे भी काफ़ी पैदल घूमे हैं। उनकी कई कहानियाँ और लेख इस बात के साक्षी हैं। अल्मोड़ा में आते ही उन्होंने सारे बाज़ार अच्छी तरह देख डाले। दुर्गा भाभी को उनसे भी अधिक घूमने का शौक़ है। कई बार मैंने देखा कि यशपाल थके हैं, पर दुर्गा भाभी तैयार हुई तो वे भी सैनिक झोला कंधे पर लेकर तैयार हो गए। मैं इधर वर्षों से सैर-सपाटे का आनंद नहीं ले पाया और जब यशपाल अपने मित्रों के संग घूमते रहे, मैं अपनी कॉटेज में बंद लिखता-पढ़ता रहा।
     
    लेकिन दो बार तो उन्होंने मुझे भी साथ घसीट ही लिया। एक बार हम सब सिंतोला की पिकनिक को गए। सिंतोला की पहाड़ी देवदार होटल से सात-आठ मील दूर है। वहीं खाना-वाना रहा। ख़ूब आनंद आया, लेकिन मैं बेहद थक गया और फिर दूरी और चढ़ाई की सैर पर न जाने का प्रण करके अपने कॉटेज में पड़ा रहा।
     
    एक रात बाज़ार की काफ़ी सैर करके हम लौटे तो चाँद निकल आया था। यशपाल ने तब देवदार होटल के बहुत ऊपर, नीचे से दिखाई पड़ने वाली कैंटोन्मेंट के देवदारों की पंक्ति को देखने का प्रस्ताव किया। साढ़े नौ बज चुके थे। साधारणतः उस समय मुझे सो जाना चाहिए। लेकिन यशपाल ने साथ घसीट लिया। भरी चाँदनी में गगनचुंबी देवदारों की छाया में कैंटोन्मेंट की एकाकी सड़कों पर घूमने में जो आनंद आया वह अकथ्य है। ऊपर जाकर हम गिरजे के एक ओर बैठ गए, चाँदनी में गिरजा किसी खोए हुए स्वप्न-महल-सा दिखाई दे रहा था और नीचे घाटी और देवदार के पेड़, हलकी-हलकी हवा की सरसराहट और चाँद... मैं उतनी रात गए शायद कभी घर से न निकलता। कैंटोन्मेंट की उन सड़कों, वीथियों और देवदार की उन पंक्तियों में चाँदनी का जो दृश्य मैंने देखा उसके लिए मैं यशपाल का आभारी हूँ।
     
    यशपाल प्रायः दो एक बैठकों में ही चीज़ लिख लेते हैं, पर वे लिखे को वेद-वाक्य नहीं समझते। मेरी तरह बार-बार काँट-छाँट भी नहीं करते, पर जैनेंद्र की तरह उसे अंतिम भी नहीं समझते। दूसरी बार वे लिखी चीज़ को देखते हैं तो उसे काट-छाँट भी देते हैं।
     
    लोगों को यशपाल के अहं से शिकायत है। मैं ने पंचगनी में ही प्रयाग के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन (1946) के संबंध में 'रहबर'4 का रिपोर्ताज़ पढ़ा था, जिसमें उन्होंने यशपाल के अहं की ओर इशारा किया है कि यशपाल को अपने सिवा कोई कथा लेखक अच्छा नहीं लगता। न जाने क्यों, मैं अपने में इस प्रकार के अहं का सर्वथा अभाव पाता हूँ। कृष्ण, बेदी, मंटो, बलवंत सिंह, जैनेंद्र, अज्ञेय यशपाल—विभिन्न कथाकरों की लेखनी का रसास्वादन कर लेता हूँ। इनमें से प्रत्येक लेखक की कई कहानियाँ हैं जो मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। हीन-भाव के कारण ऐसा हो, यह बात नहीं। मैं न अपने को इनमें से किसी से हीन समझता हूँ न किसी की शैली का असर लेता हूँ, लेकिन इसके बावबूद जब कोई चीज़ मुझे भा जाती है तो वह चाहे शत्रु की ही क्यों न हो, उस का उल्लेख किए बिना मुझसे रहा नहीं जाता। अल्मोड़ा में यशपाल मेरे यहाँ ठहरे तो मुझे 'रहबर' के लेख की याद आ गई। मैं ने तय कर लिया कि मैं अपनी कहानियों के बारे में उनसे बिलकुल बात न करूँगा। लेकिन कौशल्या ने तब प्रकाशन का काम प्रारंभ कर दिया था और पहली पुस्तक 'पिंजरा' छापी थी, जिसका पहला संस्करण 'सामयिक साहित्य सदन' लाहौर से हुआ था और कई वर्षों से अप्राप्य था। उस पुस्तक की दो प्रतियाँ कौशल्या ने मुझे अल्मोड़ा भेजी थीं। यशपाल ने 'पिंजरा' देखकर उसे पढ़ने की इच्छा प्रकट की। यह भी कहा कि दुर्भाग्य से उन्होंने मेरी कोई भी कहानी नहीं पढ़ी। मैंने 'पिंजरा' उन्हें भेंट किया और कहा कि यद्यपि इसमें मेरी दस-बारह साल पुरानी कहानियाँ संकलित है, पर कुछ बहुत अच्छी है। यशपाल ने पुस्तक सधन्यवाद ले ली और कहा कि वे रात को सोते समय कुछ कहानियाँ पढ़ेंगे।
     
    यशपाल पुस्तक अपने कमरे में रख कर दुर्गा भाभी के साथ सैर को चले गए तो मैंने कौशल्या को पत्र लिखा कि वह 'भारती भंडार' से मेरा उपन्यास 'गिरती दीवारें' और मेरे सांकेतिक नाटकों का संग्रह 'चरवाहे' ख़रीद कर भेज दे, क्योंकि मैं दोनों पुस्तकें यशपाल को भेंट करना चाहता हूँ।
     
    पुस्तकें दस-बारह दिन बाद आ गईं, पर मैं उन्हें भेंट न कर सका। चुपचाप उन्हें अपने पास रखे रहा और वापसी पर जब रानीखेत रुका और वहाँ रोडवेज़ के श्री जोशी से भेंट हुई और उन्होंने 'गिरती दीवारें' पढ़ने की बड़ी इच्छा प्रगट की तो मैंने दोनों पुस्तकें उन्हें बेच दीं।
     
    हुआ यह कि जो पुस्तक मैंने यशपाल को भेंट की थी, वह उसी तरह बे-पढ़े मुझे एक कोने में पड़ी मिली। यशपाल ने उसमें शायद एक दो कहानियाँ पढ़ी थीं, फिर शायद मन ही मन अपनी कहानियों से उनकी तुलना की और उन्हें सेंटीमेंटल कह कर एक ओर रख दिया। 'पिंजरा' और 'डाची'—उस संग्रह की दो कहानियाँ बड़ी लोकप्रिय हुई थीं, पर यशपाल ने उनके बारे में भी कोई राय न दी। इस बात के बावजूद शायद मैं उन्हें 'गिरती दीवारें' भेंट करता, लेकिन बातों-बातों में उन्होंने हिंदी के प्रत्येक उपन्यास की आलोचना की−'शेखर', 'संन्यासी', 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते’, 'चित्रलेखा'...उन्हें कोई भी उपन्यास पसंद न था। 'चित्रलेखा' को मैं भगवती बाबू का उत्कृष्ट उपन्यास मानता हूँ। यशपाल ने मुझे बताया कि 'चित्रलेखा' अनातोले फ्रांस के उपन्यास 'थाया' (या थाइस−जो भी उच्चारण हो) का चरचा है। उन्होंने मुझे 'थाया' पढ़ने को भी दिया। पढ़कर 'चित्रलेखा' का महत्व मेरी आँखों में और भी बढ़ गया। क्योंकि आधार-भूत विचार में चाहे थोड़ी बहुत समानता हो, जिसे भगवती बाबू ने भूमिका में मान भी लिया है, वरना दोनों उपन्यासों में बड़ा भारी अंतर है और मुझे 'चित्रलेखा', 'थाया' से बेहतर लगा। कौशल्या ने 'गिरती दीवारें' और 'चरवाहे' लीडर प्रेस से ख़रीद कर भिजवाई थी, क्योंकि मैं लेखक की छह प्रतियाँ (जो भारती भंडार वाले बड़ी कृपापूर्वक देते हैं) कब की बाँट चुका था, इसलिए पुस्तकें ख़रीद कर ऐसे साहित्यकार को देना जो उन्हें बिना पढ़े एक कोने में फेंक दे मुझे गवारा न हुआ। और मैं ने उन्हें बेच दिया।
     
    [बाद में जब यशपाल से मेरी काफ़ी बेतकल्लुफ़ी हो गई। मैं कई बार लखनऊ गया और वे इलाहाबाद मेरे यहाँ आकर रहे और मैंने बड़ा मज़ा लेकर यह बात बताई तो उन्होंने बड़ा बुरा माना और कौशल्या से ज़बरदस्ती 'गिरती दीवारें' लेकर उसे पढ़ा।]
     
    सो अहं तो यशपाल में है। लेकिन पहली बात तो यह है कि जैनेंद्र से लेकर सत्येंद्र (शरत) तक अहं हिंदी के हर लेखक में है। हिंदी का प्रत्येक लेखक कदाचित परंपरा के कारण थर्ड-रेट सी चीज़ लिख कर भी अपने आपको सृष्टा मान लेता है...आप आज कल हिंदी को क्या दे रहे हैं? मैंने हिंदी को तीन नई कहानियाँ दी हैं! आदि वाक्य साधारणतः सुनने में आते हैं। फिर अपने बराबर किसी दूसरे को न समझना लेखकों की साधारण दुर्बलता है। स्वयं 'रहबर' साहब, जिन्हें यशपाल के अहं से शिकायत है, अपने सामने किसी दूसरे को नहीं गिनते। हिंदी के 'महान' लेखकों को मैंने अनायास अपने से छोटे लेखकों का अपमान करते देखा है।
     
    कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि लेखक, जो अपने आपको मनोविज्ञान के पंडित समझते हैं, क्या इस ज़रा से तथ्य को नहीं समझ सकते कि दूसरे के पास भी दिल है और उसमें ख़ुदी की नन्हीं सी किंदील टिमटिमाती है और वह किंदील तिलमिला कर कभी ज्वाला बन सकती है, जिसके प्रकाश से स्वयं उनकी आँखें चुँधिया जाए! दूसरों से अपने अहं की रक्षा चाहते हुए वे क्यों दूसरे के अहं की रक्षा नहीं कर सकते? मैंने ऐसे महान हिंदी लेखकों को देखा है जो बड़े नेताओं, सेठों अथवा अफ़सरों के दरबारों में और ही होते हैं और अपने साथी लेखकों तथा पाठकों के सामने और! यशपाल को मैंने ऐसा नहीं पाया।
     
    स्नॉब (Snob) के लिए वे स्नॉब अवश्य है, पर अपने साधारण पाठक तथा साधारण लेखक के लिए सरल हैं। उनका अहं अपनी कला के प्रति उनके विश्वास का प्रतीक है और उनका अक्खड़पन दूसरों के अहं से अपनी रक्षा करने का साधन! पर अपनी कला में विश्वास रखने के साथ ही साथ यह कहीं अच्छा होता यदि वे अपने अन्य साथियों की कला का भी रसास्वादन कर सकते। लेकिन यह हानि उनके साथियों की नहीं, उनकी अपनी है।
     
    यशपाल स्नॉब के साथ स्नॉब हैं। और उनकी स्नॉबरी के कई क़िस्से मुझे याद हैं।
     
    भुवनेश्वर अपने ज़माने में ख़ासे स्नॉब रहे हैं। एक बार वे यशपाल से हज़रतगंज में मिल गये। यशपाल सिगरेट ख़रीद रहे थे।
    ‘बोर्नियो’ भुवनेश्वर ने आश्चर्य प्रकट करते हुए और आँखें चढ़ाते हुए कहा, ‘हूँ−!’
    ‘हाँ−!’
    “कम्यूनिस्ट और हिंदी लेखक और बोर्नियो के सिगरेट!” भुवनेश्वर ने अँग्रेज़ी में कहा, “आई-सी-एस वाले भी इतने मँहगे सिगरेट नहीं पी पाते।“
    “आई-सी-एस वाले किसी के नौकर होते हैं, जबकि मैं मालिक हूँ।“ यशपाल ने उसी ऊँचाई से उत्तर दिया।
     
    कांतिचंद्र सोनरिक्सा नए-नए डिप्टी कलक्टर हुए थे। सिर पर टेढ़ी टोपी और हाथ में 555 का डिब्बा लिए घूमा करते थे। एक दिन वे यशपाल से 'कॉफ़ी हाउस' में मिल गए। और उन्होंने डिब्बा आगे बढ़ा दिया।
    Have a Smoke
    नहीं मैं यह नहीं पीता।
    It is 555.
    मैं 555 नहीं पीता, यशपाल ने कहा, और जेब से पाउच निकाल कर वे अपना सिगरेट बनाने लगे।
    एक बार रामविलास शर्मा और अज्ञेय इकट्ठे यशपाल से मिलने आए। रामविलास ने कहा, “देखो यार मैं सुबह से इनके साथ हूँ, पर यह एक शब्द भी नहीं बोले। तुम इन्हें बुलवा दो तो जाने।
    Do you think, I am so much in love with his Voice.'' -यशपाल ने उत्तर दिया।
    और ऐसी बीसियों बातें हैं। लेकिन यह भी तय है कि इसका पता उनके साथ काफ़ी दिन तक रहने के बाद ही लगता है कि साधारण लोगों के साथ वे कभी स्नॉबरी से काम नहीं लेते और बड़ी, सरलता से उनके साथ घुल-मिल जाते हैं।
     
    यशपाल अधिक बातचीत नहीं करते। इधर तो गले की बीमारी के कारण कम बोलते हैं, लेकिन उनकी बातचीत काफ़ी रोचक और व्यंग्यात्मक होती है। विनोदप्रियता उनमें बहुत है और जिसे अँग्रेज़ी में टख़ना खींचना कहते हैं, वह उनके स्वभाव का आवश्यक अंग है। कई बार दूसरा व्यक्ति, यदि उसमें मज़ाक़ सहने की शक्ति न हो तो तिलमिला भी जाता है।
     
    यशपाल जेल से छुटे थे। एक बड़े कवि उनके मित्र हैं। उनके घर दो दिन के लिए गए तो मित्र ने अपनी नई कविताएँ सुनाईं। कवि-पत्नी ज़रा अँग्रेज़ी-दाँ हैं और अँग्रेज़ी अदब-आदाब में विश्वास रखती हैं, कुछ वाक्य स्वभाववश बोलती रहती हैं। पति ने कविताएँ समाप्त की तो पत्नी चहकी, Are'nt they lovely!
    यशपाल चुप रहे। कविताएँ उन्हें बहुत अच्छी न लगी थी। उत्तर की न उन्होंने वांछा की न यशपाल ने दिया।
    खाने की मेज़ पर हेरिंग्ज (छोटी मछली) का डिब्बा खुला। यशपाल को प्लेट देते हुए कवि-पत्नी ने फिर वही वाक्य दोहराया, Arent' they lovely?
    Just like your husbands poems!' यशपाल ने उत्तर दिया।
     
    पढ़ी-लिखी लड़कियों में एक बार उन्होंने कहा, मिरचें और पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ एक जैसी होती है। आदमी पाना भी चाहता है और सी-सी भी करता है।
     
    एक बार उनके एक मित्र की पत्नी अपने पति के साथ लखनऊ आईं। बरसात के दिन थे। बाहर गईं तो भीग गई। आकर उन्होंने रानी (मिसेज़ यशपाल) की साड़ी पहनी और ड्राइंग रूम में आ बैठीं। क़द-बुत से वे मिसेज़ यशपाल सरीखी हैं। उनकी साड़ी पहने वे सुस्ता रही थीं कि यशपाल कहीं बाहर से आए। वे चहकी।
    Am I not looking like Rani!
    Am I not looking like Raja? यशपाल ने कहा। और वे चिल्लाईं—
    Oh, you are horrible!
    लेकिन इस सब अहं और स्नॉबरी के बावजूद वे कितने बड़े तमाशाई हैं, इसे वे ही लोग जान सकते हैं, जिन्होंने उनके मुँह से यह सुना हो कि उन्होंने मिश्र बंधुओं को कैसे अपनी कहानी सुनाई।
     
    यशपाल जीवन को जीने में विश्वास रखते हैं। खाने-पीने और जीवन को ढंग से जीने में उनका विश्वास है। बढ़िया सूट-बूट के साथ वे नव्वे-सौ का शू पहनना चाहते हैं, रेफ्रिजिएटर में रखे पेय का आनंद उठाना चाहते हैं और अधिक से अधिक ख़र्च करना चाहते हैं। इसका एक कारण तो वह ग़रीबी और अभाव हो सकता है जिसमें उनका बचपन और जवानी का अधिकांश समय बीता और दूसरा नास्तिकता तथा आवागमन के दर्शन में उनका अविश्वास! वे इसी जीवन में विश्वास रखते हैं और दूसरे जीवन की चिंता में इसे बिगाड़ने के बदले इसे ही बनाना चाहते हैं। यह बात कि कौसानी में जिस जगह बैठ कर महात्मा गाँधी को अनासक्तियोग लिखने का विचार आया वहीं यशपाल को आसक्तियोग लिखने की सूझी, जहाँ उनके प्रचंड अहं की ओर संकेत करती है, वहाँ उस अंतर की ओर भी इंगित करती है जो महात्मा गाँधी और यशपाल की धारणाओं में है।
     
    लेकिन उत्तरोत्तर अच्छा खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और बेहतर जीवन बिताने की वांछा रहने के बावजूद यशपाल के स्वभाव में अभिजात-वर्गीय अहं नहीं। उनका अहं उस लेखक का अहं नहीं जो रिक्शा में बैठे हुए नाक पर रूमाल रख ले कि कहीं साइकिल चलाते मज़दूर के पसीने की गंध हवा से उड़ कर उसके नथनों को न छू ले या अपने गाँव के किसी ज़रूरतमंद छात्र को कई बार की मुलाक़ात के बावजूद पहचानने से इनकार कर दे या फ़र्स्ट क्लास में सफ़र करे और साथ में एक, साधारण सा कंबल बिस्तरे के रूप में रखने की रियाकारी करे। मैंने यशपाल को इस अहं के बावजूद कि उन्हें किसी दूसरे कथाकार की चीज़ अपने मुक़ाबले में अच्छी नहीं लगती, खुले स्वभाव और सरल प्रकृति का पाया है। अल्मोड़ा में डेढ़ महीने के प्रवास में याद रखने वाली चीज़ यशपाल का संसर्ग है शेष अनुभव तो ख़ासे कटु हैं।
     
    मैंने अल्मोड़ा में यशपाल का उपन्यास 'मनुष्य के रूप' पढ़ा और अल्मोड़ा से आकर 'दिव्या' और 'देशद्रोही' देखे। 'मनुष्य के रूप' और 'दिव्या' में मुझे कुछ स्थल बहुत अच्छे लगे। जहाँ तक उपन्यास की कला का संबंध है (क्योंकि ये उपन्यास कथानक प्रधान है) मुझे उनकी कला में अनावश्यक नाटकीयता लगी। 'दिव्या' तो यशपाल ने निश्चय ही सिनेमा को ध्यान में रख कर लिखा है। उसका अंत सिनेमा के पर्दे पर बड़ा प्रभावोत्पादक हो सकता है। तनिक और सावधानी से यशपाल दिव्या' से ऐसे दोष निकाल सकते थे। यही बात 'मनुष्य के रूप' के बारे में कही जा सकती है। इसी कारण उपन्यासों में अस्वाभाविकता का दोष आ गया है। इन दोनों की तुलना में जहाँ तक कथानक के गठन का संबंध है मुझे यशपाल के शेष उपन्यासों में से 'पार्टी कामरेड' को छोड़ कर 'देशद्रोही' अच्छा लगा। कहानी 'देशद्रोही' की भी यथार्थ नहीं, यशपाल के अधिकांश उपन्यासों की भांति काल्पनिक है। इस दृष्टि से यशपाल यथार्थवादी लेखक हैं भी नहीं, लेकिन वह संभाव्य (Probable) तो है। 'मनुष्य के रूप' और 'दिव्या' में यह संभाव्यता कई जगह नहीं रहती। यशपाल की यथार्थवादिता उनके कथानाक अथवा पात्रों के चरित्र-चित्रण में नहीं, उन कथाओं अथवा चरित्रों द्वारा प्रस्तुत किए गए आधारभूत सत्यों में रहती है। आधारभूत सत्यों को बोकर वे उन पर अपनी कल्पना से कहानी अथवा उपन्यास का महल खड़ा कर देते हैं। यशपाल द्वारा किया गया सत्य का निरूपण किसी को अच्छा लगे या न लगे, पर उसकी सत्यता से प्रायः इनकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि कई जगह उसके दर्शाने की आवश्यकता, जैसे उनकी कहानी 'प्रतिष्ठा का बोझ' में मेरी समझ में नहीं आई।
     
    अल्मोड़ा से आने के बाद कार्यवश मुझे दो-एक बार लखनऊ जाना पड़ा और पहाड़ी प्रदेश में उन्मुक्त सैर-सपाटा करने वाले यशपाल को मैंने मशीनों और गुफ़ों से जुटे अनवरत काम करते देखा। यशपाल ने प्रिंटिंग मशीन लगा रखी है और उन्हें इस फ़न में काफ़ी महारत हो गई है। मशीन का अपना यह ज्ञान उन्हें प्रिय भी है, इसका उन्हें गर्व भी है और वे कहा करते हैं कि मशीन के हर मूड को वे अपनी संगिनी के मनोभावों (मूड्ज़) की भांति जानते हैं (यद्यपि कोई संगी अपनी संगिनि के, अथवा संगिनि संगी के मनोभावों को पूरी तरह जान सकती है−यह कहना कठिन है।) ऊपर तीसरी मंज़िल पर अपने कमरे में बैठे वे नीचे मशीन की आवाज़ सुन कर ही समझ जाते हैं कि उसे क्या तकलीफ़ है। फिर दफ़्तर का काम करते, प्रूफ़ पढ़ते, मशीन दुरुस्त करते मैंने उन्हें किसी प्रकार की सुस्ती दिखाते नहीं पाया। एक रात वे साढ़े ग्यारह बजे तक प्रूफ निकालने वाली छोटी सी दस्ती मशीन ठीक करते रहे और जब वह ठीक प्रूफ़ निकालने लगी तो थकावट के बावजूद हर्ष से उनका चेहरा खिल गया और वे दुर्गा भाभी के यहाँ अपने कमरे में सोने चले गए और उनकी पत्नी न जाने कब तक बैठी प्रूफ़ निकालती रहीं।
     
    बहुत सी बातें भाभी (रानी पाल) और यशपाल में मिलती हैं, लेकिन शायद भाभी में अहं, गांभीर्य और काम करने की शक्ति यशपाल की अपेक्षा अधिक है। मैंने सुबह उठते ही उन्हें काम में जुटे पाया और फिर उसी निष्ठा से दिनभर काम करते रह गई। रात तक अनथक उसी में विरत देखा। इस पर भी मैंने उन्हें झुँझलाते, चिड़चिड़ाते या खीझते नहीं पाया। नदी जैसे अनायास कंकर पत्थरों और गड्ढों के ऊपर बहती चली जाती है, मैंने उन्हें दैनिक कार्यक्रम की ऊबड़-खाबड़ता पर धैर्य से बहते देखा है। वे खाना खाने आई हैं कि नीचे से पुकार आई, वे चली गईं, फिर कुछ देर बाद आकर खाने लगीं। वे बैठी प्रूफ़ पढ़ रही हैं कि कोई आदमी मिलने आ गया, किसी बात पर वाद-विवाद हुआ यह चला गया तो बिना माथे पर बल डाले प्रूफ़ पढ़ने लगीं।
     
    यशपाल के एक मित्र ने मेरी पत्नी को परामर्श दिया था कि लखनऊ जाएँ तो रानी पाल से अवश्य मिलें, आपको प्रेरणा मिलेगी। कौशल्या स्वयं काम करने वाली है, पर इसमें संदेह नहीं कि भाभी के काम और विश्वास को देखकर उसे प्रेरणा मिली। मुझे तो यशपाल के जीवन को देखकर महाकवि ठाकुर के नाटक ‘चित्रा’ की अंतिम पंक्तियाँ याद आ गईं। चित्रा जैसा आत्म-विश्वास दिलेरी और अपने संगी के साथ जीवन के ऊबड़-खाबड़ पथ पर सुख और संकट में पग से पग मिला कर चलने की मायना उनमें है। ऐसी संगिनी को पाकर अर्जुन की भाँति कौन संगी न कह उठेगा−
    'Beloved my life is full'

    स्रोत :
    • पुस्तक : अतीत के चलचित्र
    • प्रकाशन : भारती भंडार
    • संस्करण : 1941

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