पद

पद छंद की ही एक विधा है। छंदों में मात्राओं या वर्णों की संख्या या क्रम निश्चित होते हैं, जबकि पद वर्णों या मात्राओं की गणना से मुक्त होता है। तुकांतता के निर्वाह से पद गेय होते हैं, इसलिए प्राचीन कवियों ने पदों पर शीर्षक के रूप में प्रायः रागों के नाम ही दिए हैं। पदों की परंपरा हिंदी साहित्य में विद्यापति से शुरू हुई जो भक्तिकाव्य से होती हुई छायावाद में महादेवी वर्मा तक निर्बाध चलती रही।

रीतिकाल के अलंकारप्रिय कवि। शृंगार के साथ सरल भक्तिपरक रचनाओं के रचयिता।

1520 -1594

भक्तिकाल से संबद्ध ब्रजभाषा की कवयित्री। नीति-काव्य के लिए उल्लेखनीय।

1398 -1518

भक्ति की ज्ञानमार्गी एवं प्रेममार्गी शाख़ाओं के मध्य सेतु। मीरा के गुरु।

निंबार्क संप्रदाय से संबद्ध रसिक-भक्त कवि।

1883

भारतेंदु युग की अचर्चित कवयित्री।

1548 -1628

कृष्ण-भक्त कवि। भावों की सरस अभिव्यक्ति के लिए ‘रस की खान’ कहे गए। सवैयों के लिए स्मरणीय।

1700 -1765

वास्तविक नाम ‘बनी-ठनी’। कविता में शृंगार का पुट। नायिका-भेद के लिए स्मरणीय।

1556 -1627

भक्तिकाल के प्रमुख कवि। व्यावहारिक और सरल ब्रजभाषा के प्रयोग के ज़रिए काव्य में भक्ति, नीति, प्रेम और शृंगार के संगम के लिए स्मरणीय।

1890 -1963

पारसी रंगमंच शैली के लोकप्रिय हिंदी नाटककार। ‘राधेश्याम रामायण’ कृति के लिए उल्लेखनीय।

1504 -1570

राजस्थान के जाट परिवार में जन्म। संत चतुरदास की शिष्या और मीरा की समकालीन। पदों में भक्ति की सरल अभिव्यक्ति।

1868

दियरा (उत्तर प्रदेश) के ज़मींदार रुद्र प्रताप साही की विवाहिता। कविता के नाम पर सरल भाषा में हृदय के कोमल भाव-मात्र की प्रस्तुति।

1883

अवध प्रांत के प्रतापगढ़ की महारानी। देशाटन से ज्ञान और अनुभव पाया। राम-कृष्ण की भक्त।

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