कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी

kunj bhawan sen nikasali re rokal giridhari

विद्यापति

विद्यापति

कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी

विद्यापति

और अधिकविद्यापति

    कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।

    एकहि नगर बहु माधव हे जनि करु बटमारी॥

    छाड़ कान्ह मोर आँचर रे फाटत नब सारी।

    अपजस होएत जगत भरि हे जनि करिअ उघारी॥

    संगक सखि गुआइलि रे हम एकसरि नारी।

    दामिनि आए तुलाएलि हे एक राति अँधारी॥

    भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।

    हरिक संग किछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी॥

    कुंज-भवन से निकली ही थी कि गिरधारी ने रोक लिया... माधव, बटमारी मत करो! हम एक ही नगर के रहने वाले हैं। कान्हा, आँचल छोड़ दो! मेरी साड़ी अभी नई-नई है, फट जाएगी! छोड़ दो! दुनिया में बदनामी फैलेगी, मुझे नंगी मत करो। साथ की सहेली आगे बढ़ गई है। मैं अकेली हूँ। एक तो रात ही अँधेरी है, उस पर बिजली भी कौंधने लगी—'हाय, मैं अब क्या करूँ?' विद्यापति ने कहा—“तुम तो बड़ी गुणवती हो! हरि से भला क्या डरना! तुम गँवार हो! गँवार होतीं तो कान्हा से क्यों डरतीं!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 46)
    • रचनाकार : विद्यापति
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2011

    संबंधित विषय

    यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए