की हम साँझक एक सरि तारा

ki hum sanjhak ek sari tara

विद्यापति

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की हम साँझक एक सरि तारा

विद्यापति

और अधिकविद्यापति

    की हम साँझक एक सरि तारा भादव चौठिक ससी।

    इथि दुहु माझ कोन मोर आनन जे पहु हेरसि हँसी॥

    साए-साए कहह-कहह कन्हुँ कपट करह जनु कि मोर भेल अपराधे।

    मोय कबहुँ तुअ अनुगति चुकलि हुँ वचन बोलल मंदा।

    सामि समाज पेम असुरंजिए कुमुदिनि सन्निधि चंदा॥

    भनए विद्यापति सुन बर जौबति मेदनि मदन समाने।

    राज सिवसिंघ रूपनारायण लखिमा देइ रमाने॥

    [हे सखी!] क्या मैं संध्याकालीन एकाकी तारे के समान (अदर्शनीय हूँ अथवा भादौं के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के चंद्रमा के समान अशुभ) हूँ? इन दोनों वस्तुओं में से मेरा मुख किसके समान है जिसके कारण मेरा प्रियतम पति प्रसन्न होकर नहीं देखते। अर्थात् मेरा मुख कौन सी कालिमा से युक्त है जो प्रिय मेरी ओर उन्मुख नहीं होते। हे सखी! कृष्ण से जाकर कहो कि वह (मेरे प्रति) छलपूर्ण व्यवहार तो करें, मुझ से क्या अपराध हुआ है। अर्थात् मुझ निरपराधिनी को वह उपेक्षा की असह्य पीड़ा क्यों दे रहे हैं? (उनसे मेरी ओर से पूछना कि) मुझ से तुम्हारी आज्ञा मानने में कभी चूक नहीं हुई है और ही मैंने कभी उनसे कठोर वचन ही बोला है। भाव यह

    कि मैं सदैव ही उनके प्रति मृदुभाषी एवं समर्पण पूर्ण रही हूँ। मैंने तो समाज में भी अर्थात् सब के समक्ष भी स्वामी को अपने प्रेम से अनुरंजित किया है और मैं उनके सान्निध्य को पाने की उसी प्रकार आकाँक्षिणी रही हूँ जिस प्रकार कि कुमोदिनी चंद्रमा के लिए आकाँक्षिणी रहती है। विद्यापति कहते हैं कि (सखी कहती है कि) श्रेष्ठ सुंदरी! सुनो, कृष्ण पृथ्वी पर कामदेव के समान हैं अथवा तू चिंता कर पृथ्वी पर कामदेव का संचरण हो रहा है! भाव यह है कि निश्चय ही कृष्ण भी काम-प्रेरित होकर तेरे सौंदर्य के प्रति उन्मुख होंगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 296)
    • संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
    • रचनाकार : विद्यापति
    • प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
    • संस्करण : 1965

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