कहा बूझै अवधू राई

kaha bujhai awdhu rai

गोरखनाथ

गोरखनाथ

कहा बूझै अवधू राई

गोरखनाथ

और अधिकगोरखनाथ

    कहा बूझै अवधू राई, गगन धरनीं।

    चंदन सूर दिवस नहीं रैनी॥

    ऊँकार निराकार सूछिम अस्थूलं।

    पेड़ पत्र फलै नहीं फूलं॥

    डाल मूल बृच्छ बेला।

    साखी सबद गुरु नहीं चेला॥

    ग्यानें ध्यानें जोगे जुक्ता।

    पापे पुंये मोखे मुक्ता॥

    उपजै बिनसै आवै जाई।

    जुरा मरण वाकै बाप माई॥

    भणत गोरखनाथ मछिंद्र नां दासा।

    भाव भगति आस पासा॥

    हे अवधू! क्या तुम ब्रह्म के विषय में जानना चाहते हो? वह ब्रह्म आकाश है, पृथ्वी है, चंद्र है सूर्य है, रात है और दिन है, वह इन सबसे परे है। वह निराकार ब्रह्म सूक्ष्म है, स्थूल है। वह ब्रह्म किसी पेड़, पत्ते, फल, फूल, डाली, जड़, वृक्ष या बेल में भी नहीं है। वह साखी, सबदी, गुरु या शिष्य में नहीं मिलता। उसे ज्ञान, ध्यान, योग, मुक्ति, पाप, पुण्य, मोक्ष और मुक्त रूपों में देख पाना संभव नहीं। वह ब्रह्म जन्म लेता है, मरता है। उसका कहीं आवागमन भी नहीं। उसमें बुढ़ापा मृत्यु नहीं होते। उसके माँ−बाप भी नहीं। मछंदर का शिष्य गोरख कहता है कि वह भावात्मक भक्ति की आशा के समीप भी नहीं है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्री गोरख गीत (पृष्ठ 60)
    • रचनाकार : गोरखनाथ
    • प्रकाशन : laxmi prakashan

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