देक्खउ सुणउ पईसउ साद्दउ

dekkha.u su.na.u pa.iisa.u saadda.u

सरहपा

सरहपा

देक्खउ सुणउ पईसउ साद्दउ

सरहपा

और अधिकसरहपा

    देक्खउ सुणउ पईसउ साद्दउ। जिघ्घउ भमउ बईसउ उट्ठउ॥

    आलमाल बवहारें बोल्लउ। मण च्छडु एकाअरे म्म चलउ॥

    चित्ताचित्त वि परिहरहु, तिम अच्छहु जिम बाल।

    गुरु−बअणें दिढ भत्ति करु, होइहइ सहज उल्लाल॥

    आग्गे आच्छअ बाहिरे आच्छअ। पइ देक्खअ पडवेसी पुच्छअ॥

    सरह भणइ बढ जाणहु अप्पा। णउ सो धेअ धारण जापा॥

    विसअ रमन्ते विसअहिं लिप्पइ। उअल हरन्तें पाणी च्छप्पइ॥

    एमइ जोइ मूल सगत्तो। विसअण बाज्झइ विसअ रमंतो॥

    सरह कहते हैं—भोग में देखिए, सुनिए, प्रवेश कीजिए, सूंघिए, भ्रमण कीजिए, बैठिए, उठिए, जहाँ भी अच्छी नारी (आलमाल) मिले, अच्छे व्यवहार से बोलिए। यदि आपने मन के विपरीत चलने का प्रयास किया तो सहज स्वभाव में आप नहीं चल सकेंगे। चित्त और अचित्त इन दोनों को छोड़ दीजिए, इसी प्रकार रहिए जैसे बालक रहता है और गुरु के वाक्य में दृढ़ भक्ति रखिए, जिससे तुम्हें सहज ही में आनंद प्राप्त हो जाय।

    भोग भोगो, किंतु निष्काम भाव से। जैसे सुंदर नारी को पति भी चाहता है और पड़ौसी भी पूछता है। सरह कहते हैं मूर्ख! स्वयं को पहचान। भोग तो ध्येय है और धारण करने योग्य है। जिस प्रकार कमल कीचड़ में उत्पन्न होकर भी गंदे जल से परे होता है, ठीक उसी प्रकार योगी विषय में रमण करते हुए भी विषय में लिप्त नहीं होता। अर्थात् वह भी कमल पुष्पवत् निर्लिप्त रहता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दोहाकोश; भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (पृष्ठ 33)
    • रचनाकार : डॉ० रमाइंद्र कुमार
    • प्रकाशन : माँ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन
    • संस्करण : 1993

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