एथु से सरसइ सोवणाह

ethu se saras.i sova.na.aah

सरहपा

सरहपा

एथु से सरसइ सोवणाह

सरहपा

और अधिकसरहपा

    एथु से सरसइ सोवणाह, एथु से गडगासाअरु।

    वाराणसि पअग एथु, से चान्द−दिवाअरु॥

    खेत्त् पिट्ट उअपअट्ठ, एथु मइ भमिअसमिट्ठउ।

    देहासरिसत तित्थ, मइ सुणउ दिट्ठउ॥

    सरु पुडअणि दुल कमल, गन्ध−केसर वर णालें।

    च्छाडहु वेण्णिमा करहु से, मा लाग्गहु बढ आलें॥

    सरह कहते हैं, इसी शरीर में सरस्वती और प्रयाग का वास है। इसी में गंगा−सागर का भी वास है, साथ ही बनारस का भी। इसी शरीर में सूर्य और चन्द्र का वास है। इसी शरीर में पीठ, उप−पीठ, क्षेत्र भी निहित है। मैं जाने कहाँ भ्रमण कर रहा हूँ। देह के समान तीर्थ सुना गया है और ही देखा गया है। तालाब में जैसे कमल दल, उसके दंड, सुगंध आदि हैं उसी प्रकार अपने हृदय में ही कमल दल का ध्यान करते हुए उसे ग्रहण करना चाहिए। यदि द्वैत भाव का परित्याग नहीं करेंगे तो आप उस सुगंध को नहीं ग्रहण कर सकते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दोहाकोश; भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (पृष्ठ 36)
    • रचनाकार : डॉ० रमाइंद्र कुमार
    • प्रकाशन : माँ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन
    • संस्करण : 1993

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