नामवर सिंह का पत्र काशीनाथ सिंह के नाम

namwar sinh ka patr kashinath sinh ke nam

नामवर सिंह

नामवर सिंह

नामवर सिंह का पत्र काशीनाथ सिंह के नाम

नामवर सिंह

और अधिकनामवर सिंह

    डी 1/6 मॉडल टाउन

    दिल्ली-9

    01-06-66

    प्रिय काशी,

    तुम्हारी कहानी ‘अपने लोग’ मिल गई। पढ़कर उसे आज ही ‘धर्मयुग’ के लिए डाक से रवाना कर दिया। वैसे, रवींद्र कालिया आजकल छुट्टी पर हैं। कुछ दिन पहले दिल्ली में थे, अब संभवतः जालंधर हैं और सुना है कि 15 जून तक बंबई पहुँचेंगे। इसलिए इस बीच कहानी वहाँ शायद पड़ी रहे। वैसे, तुम इसके लिए भी तैयार रह सकते हो कि वह ‘धर्मयुग’ से लौट आए।

    इत्तफ़ाक़ से कमलेश जी यहीं ऑफ़िस में गए तो मैंने उन्हें भी पढ़ने के लिए कहानी दे दी। उन्होंने कहानी पढ़ ली। फिर कुछ बातें भी हुई। मैंने उनके सामने अंतर्देशीय सरकाते हुए कहा कि दो लाइनें वे भी तुम्हें अलग से लिख दें। सो, उनका भी पत्र तुम्हें साथ ही मिलेगा।

    अब तुम्हारी कहानी पर मेरी अपनी प्रतिक्रिया—जहाँ तक मैंने समझा है, कहानी की थीम यही है कि क़ायदे से अत्याचार और अपमान के सामने लोगों को ग़ुस्से में कुछ कर गुज़रना चाहिए लेकिन कभी-कभी ठीक इसका उल्टा असर भी होता है और लोग अपने को ज़िंदा महसूस करने के बजाय मुर्दा हो जाते हैं। मैं जानता हूँ कि इस तरह किसी कहानी को निचोड़कर सार रूप में उसका थीम बताना कहानी के साथ अन्याय है, फिर भी यदि तुम्हारी कहानी इसमें स्पष्ट रूप से इस थीम को सामने फेंकती है तो मैं क्या करूँ? हो सकता है, मुझे कहानी की असली थीम ही समझ में आई हो। जो हो, यह थीम मुझे पंसद आई। इसमें सच्चाई भी है—ख़ास तौर से आज की स्थिति को देखते हुए। इतने अत्याचार और अपमान के बाद भी लोग विद्रोह नहीं करते तो यही कहना पड़ेगा कि लोग बुझ चले हैं। कमलेश जी की राय थी कि यदि वे स्वयं इसी थीम पर कहानी लिखते तो अंत ऐसी पस्ती में करते। यह समाजवादी कमलेश बोल रहे थे शायद।

    लेकिन इस थीम के बावजूद तुम्हारी इस कहानी में मुझे दो-एक चीज़ें खटकीं।

    पहली बात यह कि कहानी प्रतीकवादी हो गई है और मैं तुमसे पहले भी कह चुका हूँ कि मुझे प्रतीकवादी कहानियों से बेहद चिढ़ है। तुम्हारे दोनों पात्रों में ज़िंदगी का कोई चिह्न नहीं है। हेमिंग्वे को तो तुमने पढ़ा है—तुम्हें मैंने Death in Afternoon से कभी कुछ अंश पढ़कर सुनाया भी था। एक जगह उसने Aldous Huxley की आलोचना करते हुए कहा है कि उसके ‘पात्र’ केवल ‘पात्र’ हैं ‘मनुष्य’ नहीं। तुम्हारे दोनों पात्र केवल पात्र है—मात्र प्रतीक। वे इस तरह बात करते हैं जैसे टेपरिकॉर्ड की हुई दो अदृश्य अगोचर मुर्दा आदमियों की बातचीत। शायद इस मशीनीपन को कभी-कभी गुण भी माना जाता है—कलात्मक सफलता भी। लेकिन इस संदर्भ में मैं इसे कलात्मक मानने में अपने को असमर्थ पा रहा हूँ। वार्तालाप तुम्हारे साथ से फिसलता चला गया है—जैसे उस पर तुम्हारा कंट्रोल हो-irrelevant और अनावश्यक।

    इसी तरह गालियाँ भी बचाई जा सकती थीं—शायद इस मामले में मेरे पुराने संस्कार ही ग़लती पर हों।

    लेकिन इन सबके मूल में तुम्हारी रचना प्रक्रिया से संबंधित एक बात सूझ आई है जिसे मैं तुमसे बहुत दिनों से कहना चाह रहा हूँ1 तुममें धीरे-धीरे Violence का Perverted रूप उभरता जा रहा है जो बलात् तुम्हें Phantasy की दिशा में ले जा रहा है। काशी, यह रास्ता कलात्मक दृष्टि से बड़ा ख़तरनाक है—घातक भी। Marquis de Sade को यह ‘जस्टिन’ ‘जूलियट’ जैसे निहायत काल्पनिक उपन्यासों के लेखन की ओर ले गया जिनमें वह परपीड़न के द्वारा सेक्स-संबंधी विकृतियों के एक सौ बीस असंभाव्य रूपों को गढ़ने में प्रवृत्त दिखाई पड़ता है। मुझे लगता है कि तुम्हारे अंदर भी बहुत दिनों से दबाया हुआ कोई Violence है जो आर-पार, गाली-गलौज, सेक्स-मुखरता में फूट रहा है। अपने आप में यह बुरा नहीं, बुरी है इनको अभिव्यक्त करने में अपनाई गई फ़ेंटास्टिक स्थितियाँ। आशा है, तुम इन पर सोचोगे और जब हम दोनों भाई मिलेंगे तो इस पर विस्तार से बात करेंगे।

    अब दो काम।

    1. किसी तरह सौ लंगड़े आम (कच्चे) पार्सल से भज दो—राजकमल के पते, इस तरह पैक करवा लेना कि ट्रेन में ख़राब हों और यहाँ कम-से-कम एक सप्ताह तक खाए जा सकें। यह बहुत ज़रूरी है।

    2. मुझे जून के अंतिम सप्ताह में वाराणसी आना है। पंडित जी से बातचीत तय कर लेना कि 26-27 जून की तिथियाँ मैं मीटिंग के लिए रखूँ तो कैसा रहेगा। मैं भी उन्हें कल लिख रहा हूँ। मैं एक सप्ताह के लिए वाराणसी आऊँगा—संभवतः 25 को यहाँ से चलूँगा।

    3. यदि तुम्हें 15 तारीख़ के आसपास आना हो तो शिवमूरत को ख़बर भेजकर बुलवा लेना और अपने साथ ही लेते आना वरना यहाँ तुम्हें तकलीफ़ होगी। वैसे 1 जुलाई को मेरे ही साथ आओ तो ज़्यादा अच्छा रहेगा। तब तक यहाँ और लोग भी रहेंगे। ठंडा भी रहेगा। इस विषय में मैं फिर लिखूँगा। गर्मियों में मैं स्वयं यहीं कहीं पहाड़ों में जाना चाहता हूँ सात-आठ दिन के लिए। शेष फिर।

    सस्नेह

    तुम्हारा भैया

    स्रोत :
    • पुस्तक : काशी के नाम
    • रचनाकार : नामवरसिंह
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए