केदारनाथ अग्रवाल का रामविलास शर्मा के नाम पत्र

kedaranath agarwal ka ramawilas sharma ke nam patr

केदारनाथ अग्रवाल

केदारनाथ अग्रवाल

केदारनाथ अग्रवाल का रामविलास शर्मा के नाम पत्र

केदारनाथ अग्रवाल

और अधिककेदारनाथ अग्रवाल

     

    बांदा
    5-12-43
    प्रिय शर्मा,

    मैंने तो तुम्हें लंबा पत्र लिखा और भेजा, तुमने एक छोटा-सा ‘टुटुरुँ टू’ पोस्टकार्ड ही मेरी ख़िदमत में पेश किया। मैं नहीं जानता कि सिवाय साहित्यिक ज़बान में तुम्हें गाली दूँ और क्या कहूँ। कविताएँ नहीं अच्छी लगी, जाने भी दो। दोस्त! ख़त को तो बसंत की बहार से भर देते। लिखने वाले साले लिखा ही करते हैं पर बेचारों की दो ही तीन चीज़ें पूरी उतरती हैं। मैं तो कलम पकड़ना सीख रहा हूँ। मुझे तुम्हारे विचार बिल्कुल बुरे नहीं लगते। हाँ, इतना ज़रुर कहूँगा कि इन कविताओं को भी एक प्रकार के पाठक बेहद पसंद करते हैं। मैं उन्हीं का कवि हूँ—सब का कवि नहीं। दो रचनाएँ और भेजता हूँ; चाहे जिसमें छाप लो, पर राय देना ज़रुर।

    रही बात Free Verse की—यह मुझे मेरी जान ही मालूम होती है। जो चाहता हूँ वही उन शब्दों में कह लेता हूँ—ऐसा नहीं होता कि लिखने कुछ बैठूँ और तुकांत के दाँव-पेंच में पड़कर कुछ दूसरा ही लिख डालूँ। मेरा ऐसा अनुभव है कि तुकांत में यही होता है। उसमें मेरी हत्या होती है। Free Verse में मैं पनपता हूँ। मुझे तुम्हारी सलाह तुकांत में लिखने की पसंद है पर ग्राह्य नहीं है। मैं उसे ग्रहण तो तब करुँ जब वह मुझे धोखा न दे। वह दग़ाबाज़ है। वह केदार को नहीं, साहित्यिक मानव के पुरातन भावों को ही शब्दों के गर्भित अर्थ गौरव से प्रकट करना जानती है। मुझे Free Verse का माध्यम जानदार और ज़ोरदार मिला है। यह पिटा-घिसा नहीं हैं। न इसमें पंक्ति के अंतिम भाग का एक-सा अवसान है। यहाँ प्रवाह है, रोज़ की बोली का सजीव रुप है। शर्मा मेरी राय मानो तो तुम मुझे तुकांत लिखने की यह सलाह न दो। मैं तुम्हारा केदार हूँ। वैसे तो मैं मानूँगा नहीं, पर तनिक और सोच लो। लोग गधे होते हैं—हरामज़ादे होते हैं, उन्हें तो तुम जितने घूँट जैसा पानी पिलाओगे वह उतने घूँट वैसा पानी पिएँगे। उनकी ख़ुद की रुचि ही क्या है। वह लेखक की क़लम के साथ नाचते हैं। ताब भर हो मेरी क़लम में मैं तो उन्हें ऊबने न दूँगा ऐसे तरीक़े से लिखूँगा जो नई होंगी। मैं पुराना तरीक़ा आने ही नहीं देता। साँस का ज़ोर पंक्तियों में आवे, मेरी यह साधना है। जिन लोगों को तुम कहते हो कि ऊब गए हैं Free Verse से, वे लोग ही कौन हैं? तुम्हारे घनचक्कर साहित्यिक होंगे। नए साहित्य की सृष्टि अतुकांत मुक्त छंदों के प्रवाह में है, मैं यही देख रहा हूँ। जब दुनिया वाले तुकांत छंदो को युगों से घोखते रहने पर भी आज तक नहीं ऊबे, तब भला वे इस कुछ काल की अतुकांत Free Verse से कैसे ऊब सकते हैं! वह जब इसी के आदी हो जावेंगे तब इसका स्वागत करेंगे, अभी उनकी सब भावनाओं का प्रकटीकरण नहीं है, इसी से इस Free Verse से बिचकते हैं; जैसे मेरा बूढ़ा बैल नेता लोगों को देख कर बिचकता है। फिर यह तो Free Verse की मुठभेड़ है, तुकांत की जीत नहीं हो सकती, अपनी लंबी चौड़ी टाँगों और मज़बूत कलाइयों का पूरा ज़ोर Free Verse गोलमटोल तुकांत के शरीर पर अजमावेगा और ख़ून निकाल लेगा। Free Verse की कविता नए दृष्टिकोण की कविता है। वह केवल कल्पना की परी के उरोज़ों पर चढ़ी चोली अथवा भावुक नासिका की टाट पर बैठने वालों की सोहबत में रहने वालों की, ऊबड़-खाबड़ देह की एक मात्र मज़दूरिन है। उसे नफ़ासत की उँगलियाँ कैसे छू सकती हैं। सभ्य समाज के पोषक उसे कैसे पास बुलाकर निहार सकते हैं। वह साहित्य में ‘भदेस [पन]’ में ख़ून की लाली है, गर्मी है और ताक़त है। शर्मा तुम न ऊबो, और सालों को ऊबने दो। मैं गाली इससे देता हूँ कि वह [वे] तुम्हारा स्वाद बिगाड़ रहे हैं। तुम पूरे ‘साधु’ (साहित्यिक) होते जा रहे हो, यह प्रगति तुम्हें बहका रही है। जानते हो दुनिया उसी की है, जिसका हथियार (चाहे वह जिस प्रकार का हो) गहरा घाव करता है। मैं सोचता हूँ तुकांत काम कर चुकी। नई दुनिया के बाशिंदों को वह चीज़ नहीं दे सकती—वह निकम्मी और कायर है। तुम कहोगे संसार की तुकांत कविता ने ही संसार बदला है, रंग जमाया है। सत्य, मैंने ग़लत कहा भूतकाल का अनुभव मात्र है। जब संपूर्ण राज्य व्यवस्था ही उलट-पुलट रही है, हँसिया-हथौड़ा की हड्डी-पसलियाँ नव निर्माण कर रही हैं, तब क्या यह संभव नहीं है कि पुरानी कविता की ‘तरकीबें’ भी रद्द कर दी जाएँ और नई निकाली जाएँ। तुकांत कविता एक फल का चाक़ू जैसी है। अतुकांत Free Verse सौ लाख फलों जैसी है।

    दोस्त, तुम यह न सोचना कि मैंने यह सब अपनी कविता के Defence में लिखा है। यह मेरे साथ अन्याय होगा क्योंकि मैं तुम्हारे साथ यह ‘कपट’ नहीं कर सकता। मैं अपनी कविताओं की कमज़ोरियाँ मानता हूँ—मैं प्रयत्न करता हूँ कि ज़ोरदार चीज़ें दूँ। तुम्हें क़ायल कर दूँ। पर यह ज़रुर है कि जहाँ सब उस तरह लिखते हैं, मुझे मेरी तरह ही लिखने दो। मेरा यह Experiment है। इसे बीच में ही न बंद करने को कहो। यदि सफल हुआ तो हिंदी का फ़ायदा है। यदि न हुआ तो नुकसान नहीं है। तुम्हारी बात मान जाऊँगा।

    शायद तुमने देखा होगा कि छंद वाली कविता ग्राम्य कंठ से नहीं निकलती। उसमें Free Verse ही रहता है। मैं शहरी गवैयों या गज़ल गाने वालों की बात नहीं कहता, न आल्हा या ब्रजवासी गाने वालों की बात कहता हूँ। ये कवियों की कृतियों के मौखिक अनुकरण हैं। जब पिसनहारी गाती है, तो साँसे लंबी-छोटी चली हैं Free Verse में। ख़ैर...

    कहो; क्या बड़े दिन में इधर आओगे? सख़्त ज़रुरत है तुम्हारी। मैं कोशिश करने पर भी शायद प्रयाग न आ सकूँ—यदि तुम न आओगे तो सूचित करने पर फिर मैं ही प्रयत्न करुँगा। तुमसे मिलना है। नागर ने लिखा है कि तुम प्रयाग आओगे। कृपया मुझे भी इत्तला दो सही-सही। तुम नियत तिथि पर पहुँचते।

    मैं कोई Controversy नहीं Raise कर रहा। किंतु तुमसे अपने विचारों पर प्रकाश चाहता हूँ। केवल उनकी कमज़ोरी या मज़बूती नापना चाहता हूँ। मेहरबानी करके मुझे Convince कर दो।
    तुम्हारा नाटक1 पढ़ा। ख़ूब पसंद आया। उसे एक दिन बड़े दिन में घर में खेल कर देखूँगा। अशोक साहब2, कुछ कविताएँ तो आपकी जमी।

     

    तुम्हारा

    केदार

    स्रोत :
    • पुस्तक : मित्र संवाद (पृष्ठ 68)
    • रचनाकार : केदारनाथ अग्रवाल

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