अजामिल

ajamil

 

(दोहा)

सुनो अजामिल की कथा, राजनूं! देकर ध्यान।
नाम-नाव आरूढ़ हो, भव-नद तरा महान॥

(छंद)

राजन! ऐसा कौन रोग है जिसका हो उपचार नहीं?
करने पर उद्योग, विघ्न के मिटते लगती बार नहीं।
है पुरूषार्थ रूप में हरि ही, इनको त्यागे भद्र कहाँ?
तट का कर्कट क्यों छोड़ेगा, देगा झाल समुद्र जहाँ?

तन मन और वचन से जो कुछ पातक होते रहते हैं।
प्रायश्चित बिना वे प्रतिपल रह-रह दिल की दहते हैं।
पातक-दाग़ मिटाने को ही हरि-पद-सरसिज साबुन हैं।
श्रीहरि के उस दया-भवन में होते अवगुन भी गुन हैं प्रायश्चित॥

बड़ा मनुज ही जाने पावे ऐसा वह दरबार नहीं।
सबकी गति है अटल वहाँ पर निर्दय पहरेदार नहीं।
हरि-चरणों में जाने का जो नर करता पुरुषार्थ नहीं।
मनुज देह के पाने का वह समझा अर्थ यथार्थ नहीं॥

जिसने हरि को भुला दिया है, अन्य याद रखने से क्या?
जिसने पीयी सुधा नहीं है अन्य स्वाद चखने से क्या?
हरि के नाम-विटप की छाया का जिसको आधार नहीं।
त्रै तापों की प्रखर धूप का कर सकता प्रतिकार नहीं॥

(दोहा)

हरि-चरणों में मन लगा, रक्खे अति उत्साह।
सहज कर्म करता रहे, पावे भव-नद थाह॥
सहज कर्म शुभ पथ्य युत, तज कुपथ्य दुर्भोग।
बिन ओषधि भी जीव के नशते यों सब रोग॥

(छंद)

महा अधम से अधम पुरुष भी महापुरुष पद पाता है।
हो करके निष्कपट, विकल जो हरि के सम्मुख जाता है।
हरि का आश्रय जिसे न नाशे ऐसा कोई पाप नहीं।
सुत को रोता देख न पिघले ऐसा कोई बाप नहीं॥

हरि से रहना विमुख सर्वदा सबसे बढ़कर पाप यही।
हरि के सम्मुख हो जाने पर रहते पाप-कलाप नहीं।
कल्प-कल्प के पापों के फल एक पलक में भुगतावे।
ऐसा है वह महा दयामय, क्या-से-क्या कर दिखलावे॥

उसका नाम दयानिधि है जब क्यों न अपनावेगा?
पातक-भीत शरण-आये को कहो क्यों न अपनावेगा?
रांजन्! उसकी कृपा-वारि से जीव-विटप फल-फूल रहे।
भूल यही है, निज को फूला देख उसे हैं भूल रहे॥

होते सब अनुकूल उसी पर जिस पर हरि अनुकूल रहे।
बाल न बाँका हो सकता है, अखिल विश्व प्रतिकूल रहे।
जिसने हरि को हृदय दे दिया यम के भय से विगत हुआ।
मुक्त हुआ वह अनायास ही, सपना-सा जगत् हुआ॥

(दोहा)

कन्याकुब्ज वर देश में, विप्र अजामिल एक।
लिखा-पढ़ा सद्गुण-सदन, धर्माधर्म विवेक॥
जप, तप, व्रत, परहित-निरत, पातक-विरत सुजान।
जनक, जननि, जगदीश का, सात्विक भक्त महान॥

(छंद)

एक दिवस वह कुसुम कुशादिक लेकर वन से आता था।
सत्वगुणी वह शांत, सुधीवर आता हरि-गुण गाता था।
देखा मग में एक अचानक दृश्य काम-उद्दीपन का।
मानो पर्दा पलट गया है आज विप्र के जीवन का॥

देखा एक युवति के संग में युवक विषय-क्रीड़ा करता।
मद पीकर उन्मत्त हुआ वह तनिक नहीं व्रीड़ा करता।
वह मद-छाकी युवति काम के वश में तन-सुधि भूल रही।
तन-पट खिसका, अर्धमुँदे दृग, मदन नशे में भूल रही॥

वह वेश्या अति रूपवती थी ब्राह्मण का मन खींच लिया।
रोका बहुत चित्त को उसने, पर मन्मथ ने विवश किया।
गया सतोगुण उसका जैसे वायु-विताड़ित मेघ यथा।
मानो जकड़ा उसे किसी ने खड़ा सह रहा मदन-व्यथा॥

जैसे अति स्वादिष्ट दुग्ध को फाड़ दिया करता अमचूर।
जैसे धर्म-कर्म को पल में विनशा देता लोभी क्रूर।
जैसे भरी सभा में खल जन विघ्न रूप हो जाता है।
पकी-पकाई खेती को ज्यों पल में उपल नशाता है॥

(दोहा)

हुआ विप्र के चित्त यों, कामोद्दीपन-दृश्य।
धर्म-कर्म सब भूलकर, हुआ कामिनी-वश्य॥
अब तो उसके मिलन की, लगी लालसा ख़ूब।
द्विज-मन-मीन रहा अहा! काम-सरोवर डूब॥

(छंद)

धर्म-पत्नी से अब तो द्विज का मन बिलकुल ही दूर हुआ।
एक लग्न उस नयी प्रिया की, फिर नशे में चूर हुआ।
द्विज का चित्त-पतंग कामिनी छबि-डोरी से उड़ा रही।
सैनों की सै दे-देकर वह लज्जा-बंधन तुड़ा रही॥

तन, मन, धन सब उसके अर्पण किया काम के पागल ने।
वेश्या-दीप-शिखा में प्रस्तुत हुआ शलभ-सम वह जलने।
करके वेश्या-संग पंख-सी उसने आप जला डाली।
धर्म-पत्नि नव त्याग मराली, अपना ली नागिन काली॥

भूल गया निज कर्म-धर्म सब पर्दा ऐसा कड़ा पड़ा।
जगत न दीखा जब से तिय का रूपांजन डल गया कड़ा।
छुटे सहज पट-कर्म हाय! अब दुष्कर्मों में लीन हुआ।
अंतःकरण मलीन हो गया दासी के आधीन हुआ॥

ज्यों-ज्यों मन विषयों में विरमा त्यों-त्यों धन की चाह बढ़ी।
पातक-पकंज ऊपर आया ज्यों-ज्यों मन सर झाल चढ़ी।
द्यूतादिक दुरुपाय-रज्जु से दैव-कूप से धन-जल को।
काढ़ पिया चाहे यह पागल, कौन सुझाये इस खल को?

(दोहा)

गणिका-तन-शीशी सुघर, कर रति-मदिरा पान।
पाप-नशा चढ़ कर हुआ, द्विज उन्मत महान॥

(छंद)

विषय-विलासों में यों बीता अनजाने वय भाग बड़ा।
शक्ति क्षीण हो गयी, देह पर रोगों का दुर्जाल पड़ा॥
रोग जाल में काल-व्याध ने द्विज-मृग फाँदा पुष्ट बड़ा।
भरता है दिन रात ‘आह’ अब खटिया ऊपर पड़ा-पड़ा॥

राम-नाम अब जपता कैसे जब पहले था काम जपा।
अब खटिया में ताप तप रहा, पहले सात्विक तप न तपा।
यद्यपि पुत्र हैं दश, अति दृढ़ तन, पर पीड़ा न बँटा सकते।
दश दर्वाजे घिरे मृत्यु से उसको वे न हटा सकते॥

तन-बन, असु-मृग, काल-व्याध ने रोग-जाल में फाँद लिये।
ऐसी स्थिति में कौन सहायक बिन हरि को आवाज़ दिये।
था जिसको हित सर्वस त्यागा पास खड़ी वह रोती है।
हँस-हँस तन, मन, धन-असिनि वह कुछ न सहायक होती है॥

अब द्विज के दुष्कर्म-कुफल सब मूर्तिमान आ खड़े हुए।
दे-देकर अति दुःख भयकंर श्वास-हरन को अड़े हुए।
यम-किकंर दृढ़ पाश दंडधर अरुण नेत्र विकराल महा।
देखे खटिया पास खड़े जब अजामेल बेहाल हुआ॥

(दोहा)

यमादूतों ने शीघ्र जब, डाला गल में पाश।
सुसंस्कार वश हो गया, उर हरि-नाम प्रकाश॥

(छंद)

‘हे नारायण! हे नारायण’ द्विज बोला यों विकल हुआ।
छोटा सुत जो नारायण था उसने आ झट शीश छुआ।
उधर स्वामि का नाम श्रवण कर पार्षद आकर खड़े हुए।
सुंदर वेष सुघड़ तन जिनके हैं रत्नों से जड़े हुए॥

सिर पर श्रेष्ठ किरीट जगमगें कर में ककंण पड़े हुए।
पीत वसन मन-हरन सर्वथा, छबि के हाथों गढ़े हुए।
यमदूतों से बोले ‘इसको छोड़ो अपने घर जाओ,
सभी भाँति है पावन यह तो, इसे न अब भय दिखलाओ॥

विस्मित हो यम-किकंर बोले—‘कौन! कहाँ से आये हो?
क्या करने को, हमें बताओ, जो तुम आये धाये हो।
क्यों हमको तुम रोक रहे हो, हम जग-शासक के किकंर,
है यह पापी-पुरुष इसे हम ले जावेंगे अब सत्वर॥

यम-नगरी में इसे यातना हम दिलवायेंगे भारी।
है यह अत्याचारी, इसकी बातें लिखी पड़ी सारी।
सुंदर पुरुषो! धर्म-कार्य में क्यों तुम बाधा करते हो?
ऐसे अधम जनों में क्यों तुम नाहक साहस भरते हो?'

(दोहा)

इसे न अब पापी कहो, हे यम-किकंर वृंद!
इसका मन हरि में लगा, करो इसे स्वच्छंद॥
जो तुम सेवक धर्म के, कहो धर्म को तत्व।
लक्षण कहो अधर्म के, पालो निज दूतत्व॥
पड़ा अजामिल भूमिपर, ‘नारायण’ सुत पास।
नारायण-पार्षद खड़े, गल यम-किकंर-पाश॥

(छंद)

‘हे पार्षदगण!’ धर्म वही है जिसे वेद ने गाया है।
है अधर्म वह जिसे वेद ने त्याज्य कर्म बतलाया है।
वेद कहो या ईश्वर इसमें किंचित् भी तो भेद नहीं।
नृप की आत्मा राज्य नियम में जैसे रहती सही-सही॥

जगत्-पिता सम्राट श्रेष्ठ है, वे-नियम हैं, जीव-प्रजा।
जो नियमों को तोड़ेगा, वह पावेगा कैसे न सजा?
रवि, शशि, अनल, पवन, नभ, संध्या, दिवस, निशा, जल, धर्म, दिशा।
यही जीवकृत कर्मों के हैं साक्षी, समझो नहीं भृषा॥

तनु-धारी को कर्म किये बिन एक विपल भी नहीं सरे।
कर्म शुभाशुभ दोनों होते, कौन पुरुष जो नहीं करे?
कर्म-बीज पड़ जाने पर जो नहीं उगे यह बात नहीं।
कर्मों के फल चखने होंगे नहीं चखे, यह हाथ नहीं॥

दुष्कर्मों के फल देने को है प्रस्तुत यमराज सदा।
किसी जीव का कर्म एक भी उनसे छानी नहीं कदा।
अज्ञ जीव इस व्यक्त देह बिन पूर्वापर क्या जान सके?
निद्रित प्राणी स्वप्न देह से जागृत-तन क्या मान सके?

(दोहा)

पर्दा पड़ता मृत्यु का, नश जाता सब ज्ञान।
अपने पिछले जन्म से, हो जाता अज्ञान॥

(छंद)

सत, रज, तम की सृष्टि जीव को हर्ष शोक देनेवाली।
सत्व-शक्ति है सहज जीव को ऊर्ध्व-लोक देनेवाली।
कामादिक छः प्रबल शत्रुओं से यह जीव घिरा बेबस।
उनके द्वारा कर्म-जाल में फँस जाता है यह हँस-हँस॥

पूर्वजन्म-कृत कर्मज है जो ‘दैव’ वही तो कारण है।
सूक्ष्म तथा इस स्थूल देह का, उसका कठिन निवारण है।
जीव इन्हीं दो दहों से ही दुख-सुख भीगा करता है।
इसका यह आदर्श अजामिल पड़ा सिसकियाँ भरता है॥

इसने सब कुछ अच्छा करके हाथी का-सा स्नान किया।
वेश्या के सँग रमा रात दिन, तिस पर मदिरा पान किया।
साँपिन ने डस लिया प्रथम, फिर घोंट धतूरा पी जावे।
ऐसे का उपचारक भी तो जग में ठट्ठा करवावे॥

अब तो इसको दाव दवा है, वैद्यराज यमराज कड़े।
तप्त तैल से हम ही इसका, विष तारेंगे खड़े-खड़े।
यही अजामिल भोग यातना, पाप-निरुज हो जाएगा।
भूले अपने उसी मार्ग को फिर से यह अपनायेगा॥’

(दोहा)

पड़ा अजामिल सुन रहा, यह सब उनकी बात।
पल-पल कटती कल्प सम, भय से कंपित गात॥

(विष्णुदूतों का यमदूतों के प्रति उत्तर)

हे यम-किकंरवृंद! तुम्हारा कथन उचित है सभी प्रकार।
पापी जीवों को नित दंडित करने का तुमको अधिकार।
यम का दंड न जग में हो तो जीव निरंकुश हो जावें।
पातक-पथ सब मुक्त हो चलें, पुण्य-पन्य सब खो जावें॥

राज्य-कार्य संचालन को ज्यों होते नान भाँति विभाग।
शासन, न्यान, प्रजा-सरंक्षण, शिक्षण आदिक चुंगी लाग।
इसी भाँति जगदीश-राज्य में यम को शासन का अधिकार।
उत्पथ-गामी को बिन पूछे तुमको त्रासन का अधिकार॥

इसी भाँति है हमें जीव को मुक्ति दिलाने का अधिकार।
किसे मारने का हक़ है तो किसे जिलाने का अधिकार।
जिसकी आज्ञा रवि, विधु, विधि, हर, नियम-सहित यम पाल रहे।
जिसकी साँकल में बँध सागर पानी ठौर उछाल रहे॥

जिसकी पलक-पतन से होता प्रलय, खोलते जग खिलता।
जिसकी आज्ञा बिना वृक्ष का पत्ता तक न तनिक हिलता।
की है उसकी भक्ति इसी ने प्रथमावस्था में भारी।
लिया नाम फिर अंत समय में, क्या यह यमपुर अधिकारी?

(दोहा)

एक बार भी जो कढ़े, अंतकाल में नाम।
शरणागत उसको समझ, देते हरि निज धाम॥
जनक, जननि, द्विज, नारि, नृप आदिक गोबध पाप।
तम-नाशन-हित रवि यथा, हरि का नाम प्रताप॥
जाति पतित हो, म्लेच्छ हो, हो सब भाँति अशुद्ध।
श्रीहरि-नाम सुजाप से, होता सत्वर शुद्ध॥

वर्षा के हो जाने से ज्यों भूमि शुद्ध हो जाती है।
जैसे झंझा-वायु द्रुमों को जड़ समेत ले जाती है।
इसी नियम से हे यमदूतो! अब निष्पाप अजामिल है।
पीड़न इसका बहुत हो चुका रुज-कोल्हूमें तन-तिल है॥

बहुत रँध चुका, अब तुम इसको दुख देते क्यों खड़े-खड़े।
सुन-सुन तीखे वचन तुम्हारे भय पीड़ित यह पड़े-पड़े।
भोग चुका निज कर्मों के फल घोर यंत्रणा यहीं सही।
अति विकराल तुम्हारे दर्शन पीड़ा इसने सही सही॥

अब इसके सत्कर्मों के फल देने को हम आये हैं।
जिसने तुम्हें पठाया उसके पति ने हमें पठाये है॥
राजन्, अंतर्द्धान हो गए, यम-चर होकर खिसियाने।
स्वस्थ हो गया विप्र उसी क्षण यम के दूत गए जाने॥

(दोहा)

गद्गद होकर प्रेम में, जोड़े दोनों हाथ।
हरि-चर-चरणों में दिया, टेक विनय-युत माथ॥
प्रेम विवश कुछ भी विनय, कर न सका यम-मुक्त।
शीश परस हरि गुप्त-चर, हुए तुरंत ही गुप्त॥

(छंद)

देखो हरि की दया अधम को किस अवसर पर अपनाया।
हुई सहायक जहाँ न जाया, मा-जाया, अपना जाया।
मैंने हरि को भजा कभी था, भूल रहा था वर्षां से।
कब आशा थी पातक-मेरु तुलेगा ऐसे सरसों से॥

हरि को ही कुछ दया आ गई, मेरे अवगुण लखे नहीं।
अवगुण जो लख लेते मेरे, ठौर नरक में थी न कहीं।
ऐसा कोई पाप नहीं जो मुझ पापी ने नहीं किया।
हाय! कलेजा अब फटता है, वृद्ध पिता को कष्ट दिया॥

कीटादिक का खाद्य गात्र यह इसके हित क्या-क्या न किया?
पातिव्रत-रत धर्मपत्नी का हा! मैंने अपमान किया।
धन्य ब्राह्मणी फिर भी तूने अपना धर्म नहीं छोड़ा।
मैंने तोड़ पदों से फैंकी, तूने नेह नहीं तोड़ा॥

मेरी वृद्धा माता रोती, रोती ही परलोक बसी।
मैंने उसकी कभी न सुध ली, बुद्धि रही नित पाप-ग्रसी।
ब्रह्मतेज को नष्ट किया हा! फँस शूद्रा के नैनों में।
सुधा-सदृश हरि-नाम भुलाया, फँसकर विष के बैनों में॥

(दोहा)

शूद्रा से उत्पन्न यह, दश सुत शत्रु-समान।
कोई जन मेरा नहीं, बिना एक भगवान॥
अब यह तन अर्पित किया, उसी स्वामि के हेत।
जिसके किंकर देखकर, यम-किकंर-मुख श्वेत॥

(छंद)

अब मैं हरि-पद-अरविंदों का होकर अचल मिलिंद रहूँ।
अब मैं संतत संत-समागम-सरवर का अरविंद रहूँ।
अब मैं हरि-पद-रति-असिवर से ‘मैं, मम’ ग्रंथि छुड़ाऊँगा।
अब मैं हरि की शरण-पवन से माया-मेघ उड़ाऊँगा॥

अब मैं सत्य-विवेक-सिंधु में मन-पाषाण निमग्र करूँ।
अब मैं सेवा-नाव बनाकर यह दुस्तर भवसिंधु तरूँ।
हरि ने मेरे दोष भुलाकर मुझको फिर अवकाश दिया।
अब भी जो मैं नहीं उठा तो मानों अपना नाश किया॥

हुआ तुरंत वैराग्य प्रबलतम, पुत्र शत्रु-सम हुए सभी।
संग्रहणी-सी गृहिणी भासी, सदन मशान-समान अभी।
होकर सब ही भाँति स्वस्थ वह हरिद्वार को चला गया।
हरि-पद-रत, भव-त्यक्त भक्त वह पातक अपने जला गया॥

हरिद्वार पर जाकर उसने योगासन दृढ़ लगा लिया।
हटा इंद्रियों को विषयों से मन आत्मा में पगा दिया।
हो एकाग्र चित्त को जोड़ा, आत्मा को परमात्मा से।
भिन्न न देखा कुछ भी उसने परमात्मामय आत्मा से॥

(दोहा)

सुमन-माल गज-कंठ से, छुटे सहज त्यों प्रान।
हरिपुर को हरि-रूप वह, बैठ चला सुविमान॥

(छंद)

नाम-नाव आरूढ़ हुआ वह भव-नाद पार हुआ पल में।
हरि के आश्रय हो जाने पर तपा न नरकों की झल में।
राजन्! पाप-विपिन है तब तक, जब तक भक्ति न ज्वाल लगे।
तब तक दुख-सुख, भ्रम है, जब तक सुप्त न ज्ञान-मराल जगे॥

तब तक तीनों ताप, न जब तक हरि-वरणोंकी छाँह गहे।
तब तक भवनद-मग्न, जब तक हरि करुणाकर बाँह गहे।
राजन्! जाकर यमदूतों ने यम से जो संवाद कहा।
उसको सुनिये, जो कुछ यम ने उन्हें कहा हितवाद महा॥

यमकिंकर अति दुःखित, लज्जित, विस्मित आदिक भाव भरे।
यम से कहने लगे, प्रभो! हम दौड़-दौड़ ही वृथा मरे।
क्या तुमसे भी प्रबल दूसरा जग में कोई शासक है?
जिसका शस्त्र हमारी भारी प्राणी-भीति-विनाशक है॥

आज उसी के गुप्तचरों ने नीचा हमें दिखाया है।
समझ स्वामि का सेवक हमसे बल-युत उसे छुड़ाया है॥
‘नारायण’ इस नाममात्र से उसे बचाने को आये।
उन्हें देखकर एक साथ ही वदन हमारे मुर्झाये॥

(दोहा)

कृपया नाथ बताइये, वे थे किसके दूत?
सुंदर, सात्विक, दिव्य तनु, धार्मिक शक्ति अकूत॥
सुनकर यों वचनावली, विहँसे यम-भगवान।
संशय-नाशक वचन वर, बोले सुधा-समान॥

(छंद)

हे किकंरगण! सचराचर का स्वामि और है एक बड़ा।
उसकी माया में यह सब जग बैल-सदृश है नथा पड़ा।
यह संसार समग्र उसी में ओत-प्रोत है भरा हुआ।
विश्व-यंत्र यह उस यंत्री से संचालित है करा हुआ॥

जीवों की तो कथा कौन है, हम उसके आधीन सभी।
उसकी तनिक अवज्ञा भी तो हम कर सकते नहीं कभी।
मैं, महेंद्र, रवि, चंद्र, महेश्वर, वरुण, अनल, विधि, अनिल तथा।
सिद्ध, साध्यगण, सुरगण आदिक पालें उसकी अटल प्रथा॥

हम सबको उस विश्वंभर का भेद न पूरा पाता है।
रहें घूमते उसी भाँति हम जैसे हमें घुमाता है।
उन श्रीहरि के दूत उन्हीं के सदृश बेषधारी होते।
दया, क्षमा, गुणयुक्त उन्हीं से जीव मुक्तकारी होते॥

घूमा करते भूमंडल में जीवों की सुध लेने को।
सत्कर्मों जीवों को प्रतिपल बिन माँगे सुख देने को॥
हरि-भक्तों को रिपुओं से या मुझसे निर्भय करने को।
भ्रमते रहते रात-दिवस वे भक्तों के दुख हरने को॥

(दोहा)

हरि के सच्चे मर्म का, नहीं किसी को ज्ञान।
त्रिगुणात्मक की सृष्टि से, है वह दूर महान॥
शुद्ध भागवत धर्म का, हम बारह को ज्ञान।
इसीलिए हम पालते, उनके सकल विधान॥

(छंद)

उसके प्यारे भक्तों पर है मेरा नहीं तनिक अधिकार।
मेरा दंड वहाँ कुंठित है जहाँ तनिक हरिनाम-प्रचार।
मेरा दंड वहीं तक पहुँचे जहाँ पाप का है अधिकार।
हरि का नाम सुखाता है बस, पल में पातक पारावार॥

दूतवृंद! वे हरि के किकंर हरि-समान हैं पूज्य सदा।
रखते हैं वे कर में निशदिन वही भक्त-भय-हरण गदा।
राजन्! ऐसा कहते-कहते यम ने अपने दृग मींचे।
प्रेम-नीर से अपने उर के सुंदर रोम-द्रुम सींचे॥

कहा धन्य हैं वे जन जो हरिनाम रात-दिन जपते हैं।
नरकानल में सुपन में भी वे जन कभी न तपते हैं।
विष्णुलोक के अधिकारी हैं, पुण्यात्मा वे भारी हैं।
जिनकी हरि में भक्ति वही जन माया-दल-संहारी हैं॥

रहे ध्यान यह तुम्हें, भविष्यत में न भुला देना इसको।
तुम भग आना, हरि के पार्षद जब लेने आवें जिसको।
राजन्! यम ने समझाकर सब, दूतों का संदेह हरा।
बतलाकर हरि का प्रभाव सब, सबके उर में भाव भरा॥

स्रोत :
  • पुस्तक : भक्त-भारती (पृष्ठ 86)
  • रचनाकार : तुलसीराम शर्मा 'दिनेश'
  • प्रकाशन : घनश्यामदास, गीताप्रेस, गोरखपुर
  • संस्करण : 1931

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