पाहुड़ दोहा-7

pahuD doha 7

मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-7

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    अब्भिंतरचित्ति वि मइलियइं बाहिरि काइं तवेण।

    चित्ति णिरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण।।61।।

    जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसयकसायहिं जंतु।

    मोक्खह कारणु एतडउ अवरइं तंतु मंतु।।62।।

    खंतु पियंतु वि जीव जइ पावहि सासयमोक्खु।

    रिसहु भडारउ किं चवइ सयलु वि इंदियसोक्खु।।63।।

    देहमहेली एह वढ तउ सतावइ ताम।

    चितु णिरंजणु परिण सिहुं समरति होइ जाम।।64।।

    जसु मणि णाणु विप्फुरइ सव्व वियप्प हणंतु।

    सो किम पावइ णिच्चसुहु सयलइं धम्म कहंतु।।65।।

    जसु मणि णिवसइ परमपउ सयलइं चिंत चवेवि।

    सो पर पावइ परमगइ अठ्ठइं कम्म हणेवि।।66।।

    अप्पा मिल्लिवि गुणणिलु अण्णु जि झायहि झाणु।

    वढ अण्णाणिमीसियहं कहं तहं केवलणाणु।।67।।

    अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सयलु ववहारु।

    एक्कु सु जोइय झाइयइ जो तइलोयहं सारु।।68।।

    अप्पा दंसणणाणमउ सयलु वि अण्णु पयालु।

    इय जाणेविणु जोइयहु छंडहु मायाजालु।।69।।

    अप्पा मिल्लिवि जगतिलउ जो परदव्वि रमंति।

    अण्णु कि मिच्छादिट्ठियहं मत्थइं सिंगइं हौंति।।70।।

    यदि चित मैला है तो बाहर के तप से क्या लाभ! अत: हे भव्य! चित में किसी ऐसे निरंजन तत्व को धारण करो जिससे वह मैल से मुक्त हो जाए।

    विषयों में जाते हुए मन को रोककर निरंजन तत्व में स्थिर करो बस! इतना ही मोक्ष का कारण है, दूसरा कोई मोक्ष का कारण नहीं है।

    अरे जीव! यदि तू खाता-पीता हुआ भी शाश्वत मोक्ष को पा जाएगा तो भट्टारक ऋषभदेव ने सकल इंद्रिय-सुखों को क्यों त्यागा?

    हे वत्स! जब तक तेरा चित जिन परमतत्व के साथ समरस-एकरस नही होता, तब तक ही देहवासना तुझे सताती है।

    जिसके मन में, सब विकल्पों का हनन करने वाला ज्ञान स्फुरायमान नहीं होता, वह अन्य सब धर्मों को करे तो भी नित्य सुख कैसे पा सकता है?

    सब चिंताओं को छोड़कर जिसके मन में परमपद का निवास हो गया, वह जीव आठ कर्मों का हनन करके परमगति को पाता है।

    तू गुणनिलय आत्मा को छोड़कर ध्यान में किसी और को ध्याता है, परंतु हे मूर्ख! जो अज्ञानी है, उसे केवलज्ञान कहाँ से होगा?

    केवल आत्मदर्शन ही परमार्थ है और सब व्यवहार है। तीन लोक का जो सार है—इस परमार्थ को ही योगी ध्याते हैं।

    आत्मा ज्ञान-दर्शनमय है, अन्य सब जंजाल है—ऐसा जानकर हे योगीजनों! मायाजाल को छोड़ो।

    जगतिलक आत्मा को छोड़कर जो परद्रव्य में रमण करते हैं तो क्या मिथ्यादृष्टियों के माथे पर सींग होते होंगे!

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 20)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए