रास पंचाध्यायी (पांचवां अध्याय)

ras panchadhyayi (panchwan adhyay)

नंददास

नंददास

रास पंचाध्यायी (पांचवां अध्याय)

नंददास

और अधिकनंददास

    सुनि पिय के रस वचन सबनि गंसि छांडि दयौ है।

    बिहंसि आपने उर सों लाल लगाय लयौ है॥

    नव मर्कत-मनि स्याम कनक-मनिगन ब्रज बाला।

    वृंदावन कों रीझि मनहुं पहिराई माला॥

    नपुर, कंकन, किंकिनि करतल मंजुल मुरली।

    ताल मृदंग उपंग चंग एकै सुर जुरली॥

    मृदुल मुरज टंकार तार झंकार मिली धुनि।

    मधुर जंत्र की सार भंवर गुंजार रली पुनि॥

    तैसिय मृदु पद पटकनि चटकनि कठतारन की।

    लटकनि मटकनि झलकनि कल कुंडल हारन की॥

    सांवरे पिय संग निरतत चंचल ब्रज की बाला॥

    मनु घन-मंडल खेलत मंजुल चपला माला॥

    मोहन पिय की मलकनि ढलकनि मोर मुकट की।

    सदा बसौ मन मेरे फरकनि पियरे पट की॥

    कोउ सखि कर पर तिरप बांधि निरतत छबीली तिय।

    मानहुं करतल फिरत लटू लखि लटू होत पिय॥

    तब नागर नंदलाल चाहि चित चकित होत यों।

    निज प्रतिबिंब बिलास निरखि सिसु भूलि रहत ज्यौ॥

    कोउ मुरली संग रली रंगीली रसहिं बढ़ावति।

    कोउ मुरली को छेंकि छबीली अद्भुत गावति॥

    जग मैं जो संगीत नृत्य सुर नर रीझत जिहि।

    सो ब्रज तियन को सहज गवन आगम गावत तिहि॥

    जो ब्रज देवी निरतत मंडल रास महा छवि।

    सो रस कैसे बरनि सके इहं ऐसो को कवि॥

    राग रागिनी समुझन को बोलिबौ सुहायो।

    सो कैसे कहि आवै जो ब्रज-देविन गायो॥

    अद्भुत रस रह्यो रास गीत धुनि सुनि मोहे मुनि।

    सिला सलिल है चली सलिल है रह्यो सिला पुनि॥

    पवन थक्यौ, ससि थक्यौ, थक्यौ उडु-मंडल सिगरौ।

    पाछै रवि रथ थक्यौ चलै नहिं आगे डगरौ॥

    इहि विधि बिबिध बिलास बिलसि निसि कुंज सदन के।

    चले जमुन जल क्रीड़न ब्रीड़न वृंद मदन के॥

    मंजुल अंजुलि भारि भरि पिय कों तिय जल मेलत।

    जनु अलि सों अरबिंद-बृंद मकरंदनि खेलत॥

    अज अजहूं रज वांछित सुंदर वृंदावन को।

    सो तनक कहुं पावत सूल मिटत नहिं तन को॥

    बिनु अधिकारी भए नहिंन बृंदाबन सूझै।

    रेनु कहां तें सूझै जब लौं वस्तु बूझै॥

    जो यह लीला गावै चित दै सुनै सुनावै॥

    प्रेम-भगति सो पावै अरु सब कै मन भावै॥

    हीन असर्धा निंदक नास्तिक धरम-बहिर्मुख।

    तिन सों कबहुं कहै, कहै तो नहिंन लहै सुख॥

    भगत जनन सों कहु जिनके भागवत धरम बल।

    ज्यों जमुना के मीन लीन नित रहत जमुन जल॥

    जदपि सप्त-निधि भेदक जमुना निगम बखानै।

    ते तिहि धारहिं धार रमत छुअत जल आनै॥

    यह उज्जल रस-माल कोटि जतनन कै पोई।

    सावधान है पहिरौ यहि तोरौ जिनी कोई॥

    श्रवन-कीर्तन सार-सार सुमिरन को है पुनि।

    ज्ञान-सार हरि ध्यान सार स्रुतिसार गहत गुनि॥

    अघ हरनी मन हरनी सुंदर प्रेम बितरनी।

    नंददास के कंठ वसौ नित मंगल करनी॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : अष्टछाप कवि : नंददास (पृष्ठ 64)
    • संपादक : सरला चौधरी
    • रचनाकार : नंददास
    • प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
    • संस्करण : 2006

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