पाहुड़ दोहा-17

paahuD dohaa-17

मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-17

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    देवलि पाहणु तित्थि जलु पुत्थइं सव्वइं कव्वु।

    वत्थु जु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होसइ सव्वु॥

    तित्थइं तित्थ भमंतयहं किण्णेहा फल हूव।

    बाहिरु सुद्धउ पाणियहं अब्भिंतरु किम हूव॥

    तित्थइं तित्थ भमेहि वढ धोयउ चम्मु जलेण।

    एहु मणु किम धोएसि तुहुं मइलउ पावमलेण॥

    जोइउ हियडइ जासु वि इक्कु णिवसइ देउ।

    जम्मणमरणविवज्जियउ किम पावइ परलोउ॥

    एक्कु सुवेयइ अण्णु वेयइ।

    तासु चरिउ णउ जाणहिं देव इ।।

    जो अणुहवइ सो जि परियाणइ।

    पुच्छंतहं समिति को आणइ॥

    जं लिहिउ पुच्छिउ कह जाइ।

    कहियउ कासु वि णउ चिति ठाइ।।

    अह गुरुउवएसें चिति ठाइ।

    तं तेम धरंतिहिं कहिं मि ठाइ॥

    कड्ढइ सरिजलु जलहिविपिल्लउ।

    जाणु पवाणु पवणपहिपिल्लिउ।।

    बोहु विबोहु तेम संघट्टइ।

    अवर हि उतउ ता णु पयट्टइ॥

    बरि विविहु सछु जो सुम्मइ।

    तहिं पइसरहुं वुच्चइ दुम्मइ।।

    मणु पंचहिं सिहु अत्थवण जाइ।

    मूढा परमततु फुडु तहिं जि ठाइ॥

    अखइ णिरामइ परमगइ अज्ज वि लउ लहंति।

    भग्गी मणहं भंतडी तिम दिवहडा गणंति॥

    सहजअवत्थहिं करहुलउ जोइय जंतउ वारि।

    अखइ णिरामइ पेसियउ सइं होसइ संहारि॥

    देवालय के पाषाण, तीर्थ का जल या पोथी के सब काव्य इत्यादि जो भी वस्तु फूली-फली दिखती हैं, वह सब ईंधन हो जाएँगी।

    तीर्थों में भ्रमण करने पर भी कुछ फल तो हुआ। शरीर तो पानी से शुद्ध हुआ, परंतु आत्मा में कौन-सी शुद्धि हुई?

    हे वत्स! तीर्थों में तू भटका और शरीर के चमड़े को जल से धोया, परंतु पाप से मलिन तेरी आत्मा को तू कैसे धोएगा?

    हे योगी! जिसके हृदय में जन्म-मरण से रहित देव निवास नहीं करता, वह जीव पर-लोक कैसे पाएगा?

    एक तत्व तो अच्छी तरह जानता है, दूसरा तत्व नहीं जानता। सर्व को जाननेवाले ऐसे आत्मतत्व का चरित्र देव भी नहीं जानते। जो अनुभव करता है, वही उसको अच्छी तरह जानता है। पूछताछ से इसका ज्ञान कैसे हो?

    जानते हुए भी वह तत्व लिखने में नहीं आता, पूछा भी नहीं जाता, कहने से किसी के चित्त में वह नहीं ठहरता। गुरू के उपदेश से यदि किसी के चित में वह ठहरता है तो चित्त में धारण करनेवाले के वह सर्वत्र अंतरंग में स्थित रहता है।

    नदी का जल सागर द्वारा विपरीत दिशा में धकेला जाता है, बडा जहाज़ भी पवन के संघर्ष से विरुद्ध दिशा में खिंच जाता है, वैसे ही ज्ञान और अज्ञान का संघर्ष होने पर जीव अज्ञान की ओर चला जाता है।

    आकाश में जो अनहद बजता है, सुमति उसका अनुसरण करता है। किंतु दुर्मति जीव उसका अनुसरण नहीं करता। पाँच इंद्रियों सहित मन जब अस्त हो जाता है, तब परमतत्व प्रकट होता है। हे मूढ! तू उसमें स्थिर हो।

    अक्षय निरामय परमगति की प्राप्ति अभी तक हुई। मन की भ्रांति मिटी और ऐसे ही दिन बीते जा रहे हैं।

    हे योगी! विषयों से तेरे मन को रोककर शीघ्र सहज अवस्था रूप कर। अक्षय निरामय स्वरूप में प्रवेश करते ही उस मन का स्वतः संहार हो जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 36)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

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