पंच सहेली गीत

panch saheli geet

छीहल

छीहल

पंच सहेली गीत

छीहल

और अधिकछीहल

     

    नगर वर्णन-

    देखा नगर सुहायणा, अधिक सुचंगा थान।
    नाऊँ चगेरी परगट, जन सुर लोक सुजान॥
    ट्ठाइ मिंदिर सत खिने, सो नइ लिहिया लेहु।
    छीहल तन की उपमा, कहत न आवइ छेहउ॥
    ट्ठाइ-ट्ठाइ सरवर पेखीया, सू सर भरे निवाण।
    ट्ठाइ कूवा बाबरी, सोहइ फटक समान॥
    पवन छतीसी तिहां वसइ, अति चतुराई लोक।
    गुम विद्या रस भागला, जानइ परिमल लोग॥
    तिहा ठइ नारी पेखीयइ, रंभा केउ निहार।
    रूप कंत ते आगली, अवर नहीं संसार॥
    पहरि सभाया आभरण, अर दक्खण के चीर।
    बहुत सहेली साथि मिलि, आई सरवर तीर॥
    चोवा चंदन थाल भरि, परिमल पहुप अनंत।
    खंडह बीड़ी पान की, खेलहु सखी बसंत॥
    केइ गावइ मधुर धुनि, केइ देवहि रास।
    केइ हिंडोलइ हींडती, इह विधि करइ बिलास॥
    तिन मांहि पंच सहेलियाँ, नाचइ गाबहि ना हँसइ।
    ना मुखि बोलइ बोल......॥1
    नयनह काजल ना दीउ, ना गलि पहिंदो हार।
    मुख तंबोल न खाईया, ना कछु किया सिंगार॥
    रूखे केस ना न्हाईया, मइले कप्पड़ तास।
    बिलखी बइसी उनमनी, लांबे लेहि उसास॥
    सूके अहर प्रबालीयां, अति कुमलाणा मुख।
    तऊ मइं बूझी जाइ कह, तुम्ह कहउ केतउ दुख॥
    दीसय यौवन बालिया, रूप दीपंती देह।
    मोसउं कहउ विचार, जाति तुम्हरी केह॥
    तउ ऊनि सच आखीया, मीठा बोल अपार।
    ना वह मारी जाति की, छीहल्ल सुनहु विचार॥
    मालन अर तंबोलनी, तीजी छीपनि नारि।
    चउथी जाति कलालनी, पंचमी सुनारि॥
    जाति कही हम तम्ह सउ, अब सुनि दुख हमार।
    तुम्ह तउ सुगना आदमा, लहउ विराणी सार॥

    मालिन की विरह व्यथा-

    पहिली बोली मालनी, मुझ कूं दुख अनंत।
    बालइ यौवन छडि कइ, चल्यु दिसाउरि कंत॥
    निसदिन बहइ पवालज्यु, नयनह नीर अपार।
    बिरहउ माली दुक्ख का, सूभर भर्या किनार॥
    कमल वदन कुमलाईया, सूकी सूख वनराइ।
    वाझू पीया रइ एक षिन, बरस बराबरि जाइ॥
    तन तरवर फल लग्गीया, दुइ नारिंग रस पूरि।
    सूकन लागा विरह फल, सींचन हारा दूरि॥
    मन बाड़ी गुण फूलड़ा, प्रिय नित लेता बास।
    अब इह थानकि रात-दिन, पीड़इ विरह उदास॥
    चंपा केरी पंखडी, गूंथ्या नव सर हार।
    जइ इहु पहिरउ पीव बिन, लागइ अंग अंगार॥
    मालनि अपना दुःख का, विवरा कह्या विचार।
    अब तूं वेदन आपनी, आखि तंबोलन नार॥

    तंबोलिनी की विरह व्यथा-

    दूजी कहइ तंबोलनी, सुनि चतुराई बात।
    बिरहइ मार्या पीव बिन, चोली भीतरि गात॥
    हाथ मरोरउ सिर धन्यु, किस सउं कहूँ पुकार।
    जउती राता बालहा, करइ न हम दिस भार॥
    पान झड़े सब रूंख के, बेल ग़ई तनि सुक्कि।
    दूभरि रति बसंत की, गया पीवरा मुक्कि॥
    हीयरा भीतरि पइसि करि, बिरह लगाई आगि।
    पिय पानी बिनि नां बूझवइ, बलीसि सबली लागी॥
    तन बाली विरहउ दहइ, परीया दुक्ख असेसि।
    ए दिन दुभरि कउं भरइ, छाया प्रीय परदेसि॥
    जब थीबालम बीछुड्या, नाठा सरिबरि सुख।
    छीहल मो तन बिरह का, नित्त नवेला दुख॥
    कहउ तंबोलनि आप दुक्ख, अब कहि छींपन एह।
    पीव चलंतइ तुझसउं, विरहइ कीया छेह॥

    छींपन का विरह वर्णन-

    त्रीजी छींपनि आखीया, भरि दुइ लोचन नीर।
    दूजा कोइ न जानही, मेरइ जीय की पीर॥
    तन कपड़ा दुक्ख कतरनी, दरजी विरहा एह।
    पूरा ब्योत न ब्योतइ, दिन-दिन काटइ देह॥
    दुक्ख का तागा बाटीया, सार सुई कर लेइ।
    चीनजि बंधइ अवि काम करि, नान्हा वखीया देइ॥
    विइहइ गोरी अतिवही, देह मजीठ सुरंग।
    रस लीया अवटाइ कइ, बाकस कीया अंग॥
    माड मरोरी निचोरि कइ, खार दिया दुख अंति।
    इहु हमारे जीव कहूँ, मइ न करी इहु भ्रंति॥
    सुख नाठा दुख संचर्या, देही करि दहि छार।
    बिरहइ कीवा कंत बनि, इम अम्ह सु उपगार॥

    कलालिन का विरह-

    छींपनि कह्या विचार करि, अपनी सुख-दुख रोइ।
    अबहि कलालनि आखि तुइ, बिरहइ आई सोइ॥
    चउवी दुख सरीर का, लाही कहन कलालि।
    हीयरह प्रीय का प्रेम की, नित्त खटूकइ भालि॥
    मोतन भाठी ज्युं तपइ, नयन चुबइ मद धारि।
    बिनही अवगुन मुझ सूं, कस कर रह्मा भरतारि॥
    देखिइ केली तइ दई, विरह लगाई घाइ।
    बालंभ उलटा हुइ रह्या, परउप छारी खाइ॥
    इस विहरइ के कारणइ, धन बहु दारू कीय।
    चित्त का चेतन ट्ठाहस्या, गया पीयरा लेय जीय॥
    माता यौवन फाग रिति, परम पीयारा दूरि।
    रली न पूरी जीय की, मरउ विसूरि-विसूरि॥
    हीयरा भीतरि झूर रहूं, करूं घणेरा सोस।
    बइरी हुआ वालहा, विहरइ किसका दोस॥
    मोसउं ब्युरा विरह का, कह्या कलालन नारि।
    इहु कुछू सरीर महि, सो तु आखि सुनारि॥

    सुनारिन की व्यथा-

    कहइ सुनारी पंचमी, अंग उपना दाह।
    हूं तउ बूडी विरह मइ, पाउं नाहीं थाह॥
    हीया अंगीट्ठी मूसि जिय, मदन सुनार अभंग।
    कोयला कीया देह का, मिल्या सवेइ सुहाग॥
    टंका कलिया दुख का, रेती न देइ धीर।
    मासा-मासा न मूकीया, सोध्या सब सरीर॥
    विहरह रूप बुराइया, सूना हुआ मुझ जीव।
    किस हइ पुकारूं जाइ कह, अब घरि नाहीं पीव॥
    तन तोले कटउ धरी, देखी किस-किस जाइ।
    विरहा कुंड सुनार ज्युउं, घड़ी फिराय पिराइ॥
    खोटी वेदन विरह की, मेरो हीयरो माहि।
    निसि दिन काया कलमलइ, नां सुख धूपनि छांह॥
    छीहल वयरी विरह की, घड़ी न पाया सुख।
    हम पंचइ तुम्ह सउं कह्या, अपना-अपना दुख॥
    कहि करि पंचउ चलीयां, अपने दुख का छेह।
    बाहरि बइ दूजी मिली, जबह धडूक्या मेह॥
    भुइं नीली घन पूंवरि, गुनिहि चमकी बीज।
    बहुत सखी के झूड मई, खेलन आइ तीज॥
    बिहसी गावइ हि रहिससुं, कीया सह संगार।
    तब उन पंच सहेलियाँ, पूछी दूजी बार॥

    छीहल का पांचों स्त्रियों से पुनर्मिलन-

    मइं तुम्ह आमन दूमनी, देखी थी उतवार।
    अब हूँ देखूँ बिहँसती, मोसउं कहउ विचार॥
    छीहल हम तउ तुम्ह सउं, कहती हइ सतभाइ।
    सांई आया रहससुं, ए दिन मुख माहि जाइ॥
    गया वसंत वियोग मइ, अर धुप काला मास।
    पाबस रिति पिय आवीया, पूगी मन की आस॥
    मालनि का मुख फूल ज्यउं, बहुत विगास करेइ।
    प्रेम सहित गुंजार करि, पीय मधुकर सलेइ॥
    चोली खोल तंबोलनी, काढ्या गात्र अपार।
    रंग कीया बहु प्रीयसुं, नयन मिलाई तार॥
    छींपनि करइ बधाईयां, जस सब आए दिट्ठ।
    अति रंगिराती प्रीयसु, ज्यउं कापड़उ मजीठ॥
    यौवन बालइ लटकती, रसि कसि भरी कलालि।
    हँसि-हँसि लागइ प्रीय गलि, करि-करि बहुती आलि॥
    मालनि तिलक दीपाईया, कीया सिंगार अनूप।
    आया पीय सुनारि का, चढ्या चवगणा रूप॥
    पी आया सुख संपज्या, पूगी सबइ जगीस।
    तब वह पंचइ कांमिनी, लागी दयन असीस॥
    हुंउ बारी तेरे बोलकुं, जहि बरणवी सुट्ठाइ।
    छीहल हम जग मांहि रही, रह्या हमारा नाँव॥
    धनिस मंदिर धन्न बिन, बनस पावस एह।
    अन्न वल्लभ घरि आईया, धनस चुट्ठा मेह॥
    निसदिन जाइ आनंद मइ, बिलसइ बहु विष भोग।
    छीहल्ल पंचइ कामिनी, आई पीव संजोग॥
    मीठे मन के भावते, कीया सरस बखाण।
    अण जाण्या मूरिख हँसइ, रीझइ चतुर सुजांण॥
    संवत् पनर पचहुत्तरइ, पूंनिम फागुण मास।
    पंच सहेली वरणवी, कवि छीहल्ल परगास॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि (पृष्ठ 135)
    • संपादक : कस्तूरचंद कासलीवाल
    • प्रकाशन : श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर
    • संस्करण : 1922

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए