भँवरगीत

bhanwragit

नंददास

नंददास

भँवरगीत

नंददास

और अधिकनंददास

     

    ऊधो को उपदेश सुनो ब्रज-नागरी।
    रूप, सील, लावन्य सबै गुनि आगरी॥
    प्रेम-धुजा, रस-रूपिनी, उपजावनि सुख-पुंजा।
    सुंदर स्याम-विलासिनी, नव वृंदावन कुंज॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    कहन स्याम-संदेश एक मैं तुम पै आयो।
    कहन समैं संकेत कहूँ ओसर नहिं पायौ॥
    सोचत ही मन मैं रह्यो, कब पाऊँ एक-ठाउँ।
    कहि संदेश नंदलाल को, बहुरि मधुपुरी जाउँ॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    (ब्रजबालाओं का प्रेम)

    सुनत स्याम कौ नाम बाम गृह की सुधि भूली।
    भरि आनंद रस हृदय प्रेम बेली द्रुम फूली॥
    पुलक रोम सब अंग भए भरि आए जल नैन।
    कंठ घुटे गद्गद गिरा बोल्यो जात न बैन॥
    बिवस्था प्रेम की॥

    (कथोपकथन)

    अर्घासन बैठाय बहुरि परिकरिमा दीनी।
    स्याम-सखा निज जानि बहुत हित सेवा कीनी॥
    बूझत सुधि नंदलाल की बिहँसत सुख ब्रज-बाल।
    ब्रज—नीके हैं बलवीर जू, बोलनि बचन रसाल॥
    सखा! सुनि स्याम के॥

    उद्धव—कुसल स्याम अरु राम कुसल संगी सब उनके।
    जदुकुल सिगरे कुसल परम आनंद सबिन के॥
    बूझन ब्रज कुसलात कौं हौं आयौ तुम तीर।
    मिलिहै थोरे दिवस में जनि जिय होहु अधीर॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    सुनि मोहन-संदेस रूप सुमिरन ह्वै आयौ॥
    पुलकित आनन कमल अंग आवेस जनायौ॥
    बिहवल है धरनी परीं ब्रज-बनिता मुरझाय।
    दै जल छींट प्रबोधहीं ऊधौ बैन सुनाय॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    उद्धव—वे तुम तें नहिं दूरि स्याम की आँखि देखौ।
    अखिल बिस्व भरि पूरि रूप लब उनहिं बिसेखौ॥
    लोह दारू पाषान में जल थल महा अकास।
    सचर अचर बरतत सबै जोति ब्रह्म-परकास॥
    सुनो ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—कौन ब्रह्म को जोति ग्यानि कासौं कहैं ऊधौ?
    हमारे सुंदर श्याम प्रेम को मारग सूधौ॥
    नैन बैन स्रुति, नासिका मोहन रूप दिखाइ।
    सुधि बुधि सब मुरली हरी प्रेम-ठगौरी लाइ॥
    सखा! सुनि स्याम के॥

    उद्धव—निर्गुन सबै उपाधि रूप निर्गुन ले उनकौ।
    निराकर निर्लेप लगत नहिं तीनों गुन कौ॥
    हाथ पाँव नहिं नासिका नैन बैन नहिं कान।
    अच्युत ज्योति प्रकासिका, सकल विश्व कै प्रान॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—जो मुख नाहिंन हुतो कहो किन माखन खायौ?
    पायन बिन गे संग कहो कौ बन-बन धायौ?
    आँखिन में अंजन दियौ, गोवरधन लियौ हाथ।
    नंद-जसोदा पूत है कुँवर कान्ह ब्रजनाथ॥
    सखा! सुनि श्याम के॥

    उद्धव—आहि कहौ तुम कान्ह ताहि कोउ पितु नहिं माता।
    अखिल अंड ब्रह्मांड बिस्व उनहीं में जाता॥
    लीला को अवतार लै धरि आए तन स्याम।
    जोग जुगत हो पाइयै पारब्रह्म-पद-धाम॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—ताहि बताओ जोग जोग ऊधौ पावौ।
    प्रेम सहित हम पास नंदनंदन गुन गावौ॥
    नैन बैन मन प्रान में मोहन गुन भरिपूरि।
    प्रेम पियूषै छाँड़ि कै कौन समेटे धूरि॥
    सखा! सुनि श्याम के॥

    उद्धव—धुरि बुरी जौ होइ ईस क्यों सीस चढ़ावै।
    धूरि छेत्र में आइ कर्म करि हरिपद पावै॥
    धूरहिं तें यह तन भयो धूरहि सौं ब्रह्मांड॥
    लोक चतुर्दस धूरि के सप्त दीप नव खंड॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—कर्म-धूरि की बात कर्म-अधिकारी जानैं।
    कर्म-धूरि कों आनि प्रेम-अमृत में सानैं।
    तबही लौं सब कर्म है जब लौं हरि उर नाहिं।
    कर्म बंध सब विस्व के जीव विमुख ह्वै जाहिं॥
    सखा! सुनि श्याम के॥

    उद्धव—कर्महिं निंदौ कहा कर्म तें सदगति होई।
    कर्मरूप तें बली नाहिं त्रिभुअन मैं कोई॥
    कर्महिं तें उतपत्ति है, कर्महिं तें सब नास।
    कर्म किए तें मुक्ति होइ, पारब्रह्म-पुर बास॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—कर्म, पाप अरु पुन्य लोह सोने की बेरी।
    पायन बंधन दोउ कोउ मानौ बहुतेरी॥
    ऊँच कर्म तें स्वर्ग है, नीच कर्म तें भोग।
    प्रेम बिना सब पचि मुये बिषयबासना रोग॥
    सखा! सुनि श्याम के॥

    उद्धव—कर्म बुरो जो होइ जोग कोउ काहे धारैं।
    पद्मासन सब द्वार रोकि इंद्रिय कों मारै॥
    ब्रह्माअगिन जरि सुद्ध ह्वै सिद्धि समाधि लगाइ।
    लीन होइ साजुज्य में जोतै जोति समाइ॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—जोगो जोतिहि भजैं भक्त निज रूपहिं जानै।
    प्रेम पियूषै प्रगटि स्यामसुंदर उर आनै॥
    निर्गुन गुन जो पाइये लोग कहैं यह नाहिं।
    घर आए नाग न पुजै बाँबी पूजन जाहिं॥
    सखा! सुनि स्याम के॥

    उद्धव—जो हरि के गुन होइ वेद क्यों नेति बखानै।
    निर्गुन आत्मा उपनिषद जो मानै॥
    वेद पुराननि खोजि कै नहिं पायो गुन एक।
    गुनही के जो होहि गुन कहि अकास किहि टेक?
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—जो उनके गुन नाहिं और गुन भये कहाँ तें।
    बीज बिना तरु जमें मोहि तुम कहौ कहाँ तें॥
    या गुन की परछाँह री माया दरपन बीच।
    गुन तें गुन न्यारे नहीं अनल बारि मिलि कीच॥
    सखा! सुनि स्याम के॥

    उद्धव—माया के गुन और गुन हरि के जानौ।
    या गुन को इन माँझ आनि काहे को सानौ॥
    जाके गुन अरु रूप कौ जान न पायौ भेद।
    तातें निर्गुन ब्रह्म कौ बदत उपनिषद बेद॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—वेदहु हरि के रूप स्वास मुख तें जो निसरै।
    कर्म क्रिया आसक्ति सबै पछिली सुधि बिसरै॥
    कर्म मध्य ढूँढ़ै सबैं किनहि न पायौ देखि।
    कर्म-रहित ही पाइयै तातें प्रेम बिसेखि॥
    सखा! सुनि स्याम के॥

    उद्धव—प्रेमहि कै कोउ वस्तु रूप देखत लौ लागै।
    वस्तु दृष्टि बिन कहो कहा प्रेमी अनुरागे॥
    तरनि चंद्र के रूप कौ नहिं पायो गुन जान।
    तौ उनकौ कहा जानियै गुनातीत भगवान॥
    सुनौ ब्रजनागरी॥

    ब्रजबालाएँ—तरनि अकास प्रकास जाहि में रह्यौ दुराई।
    दिव्य दृष्टि बिनु कहौ कौन पै देख्यौ जाई॥
    जिनके वे आँखें नहीं, देखें क्यों वह रूप।
    क्यों उपजै विश्वास जे परे कर्म के कूप॥
    सखा! सुनि श्याम के॥

    उद्धव—जब करियै नित कर्म भक्ति हू या में आई।
    कर्म रूप तें कहौं कोन पै छूट्यौ जाई॥
    क्रम क्रम कमें के किये कर्म नास ह्वै जाय।
    तब आत्मा निहकर्म ह्वै निर्गुन ब्रह्म समाय॥
    सुनौ ब्रज नागरी॥

    ब्रजबालाएँ—जौ हरि के नहिं कर्म कर्म बंधन क्यों आयौ।
    तौ निर्गुन होइ वस्तु मात्र परमान बनायौ॥
    जो उनको परमान है तो प्रभुता कछु नाहिं।
    निर्गुन भए अतीत के सगुन सकल जग माहिं॥
    सखा! सुनि श्याम के॥

    उद्धव—जे गुन आवैं दृष्टि माहि नस्वर हैं सारे।
    इन सबहिन ते बासुदेव अच्युत है न्यारे॥
    इंद्री दृष्टि बिकार तें रहित अधोछज जोति।
    सुद्ध सरूपी ग्यान की प्रापति तिनको होति॥
    सुनौ ब्रज नागरी॥

    ब्रजबालाएँ—नास्तिक हैं जो लोग कहा जानें निज रूपे।
    प्रगट भानु कों छाँड़ि गहत परछाईं धूपै॥
    हमरें तौ यह रूप बिन और न कछू सुहाय।
    जो करतल आमलक के कोटिक ब्रह्म दिखाय॥
    सखा! सुनि स्याम के॥

    (कृष्ण के प्रति उपालंभ)

    ऐसे में नंदलाल रूप नैननि के आगे।
    आय गयौ छबि छाय बने बीरी अरु बागे॥
    ऊधौं सों सुख मोरिकै कहत तिनहि सों बात।
    प्रेम-अमृत मुख तें स्रवत अंबुज-नैन चुवात॥
    तरक रसरीति की॥

    अहो! नाथ! रमानाथ और जदुनाथ गुसाईं।
    नंदनंदन बिडरात फिरत तुम बिनु बन गाई॥
    काहे न फेरि कृपाल ह्वै गौ ग्वालन सुख लेहु।
    दुख-जल-निधि हम बूड़हीं कर-अबलंबन देहु॥
    निठुर ह्वै कहाँ रहे॥

    कोउ कहें अहो दरस देत पुनि लेत दुराई।
    यह छलविद्या कहौ कौन पिय तुमहिं सिखाई॥
    हम परबस आधीन हैं तातें बोलत दीन।
    जल बिनु कहि कैसे जियें पराधीन जे मीन॥
    विचारौ रावरे॥

    कोउ कहै प्रिय दरस देव तौ बेनु सुनावौ।
    दुरि दुरि वन की ओट कहा हिय लोन लगावौ॥
    हमकों तुम पिय एक हौ तुमको हमसी कोरि।
    बहुताइत के रावरे प्रीति न डारो तोरि॥
    एक ही बार यौं॥

    कोउ कहौ अहो स्याम कहा इतराय गए हौ।
    मथुरा कौ अधिकार पाय महराज भए हौ॥
    ऐसे कछु प्रभुता अहो जानत कोऊ नाहिं।
    अबला बुधि सुनि डरि गई बली डरैं जग माहिं॥
    पराक्रम जानि कै॥

    कोउ कहै अहो स्याम चहत मारन जो ऐसे।
    गोवरधन कर धारि करी रच्छा तुम कैसे॥
    व्याल, अनल, विष ब्याल तैं राखि लई सब ठौर।
    बिरह-अनल अब दाहिहौं हसि नंदकिशोर॥
    चोरि चित लै गये॥

    कोउ कहै ये निठुर इन्हें पातक नाहिं ब्यापै।
    पाप पुन्य के करनहार ये ही हैं आपे॥
    इनके निरदै रूप मैं नाहिंन कोउ चित्र।
    पय प्यावत प्रानन हरे पुतना बाल चरित्र॥
    मित्र ये कौन के?

    कौउ कहै री आज नाहिं, आगे चलि आई।
    रामचंद्र के रूप माहिं- कीनी निठुराई॥
    जग्य करावन जात हे बिस्वामित्र समीप।
    मग में मारी ताड़का रघुवंश-कुलदीप॥
    बाल ही रीति यह॥

    कोउ कहै ये परम धर्म इस्त्रीजित पूरे।
    लछ लाघव संधान धरें आयुध के सूरे॥
    सीताजू के कहे तें सूपनषा पै कोपि।
    छेदे अंग विरूप कर लोगनि लज्जा लोपि॥
    कहा ताकी कथा॥

    कोउ कहै री सुनौ और इनके गुन आली।
    बलिराजा पै गये भूमि मांगन बनमाली॥
    मांगत बामन रूप धरि, परबत भयो अकाय।
    सत्त धर्म छांड़ि कै धर्यो पीठ पै पाय॥
    लोभ की नाव ये॥

    कोउ कहै इन परसुराम ह्वै माता मारी।
    फरसा कंधा धारि भूमि छत्रिन संधारी॥
    सोनित कुंड भराय कै पोषे अपने पित्र।
    तिनकै निरदय रूप में नाहिन कोऊ चित्र॥
    बिलग कहा मानियै॥

    कोउ कहै अहो कहा हिरनकस्यप तें बिगर्यौ।
    परम ढीठ प्रहलाद पिता के सनमुख झगर्यौ॥
    सुत अपने को देत हो सिच्छा दंड बँधाय।
    इन बपु धरि नरसिंह को नखन बिदार्यौ जाय॥
    बिना अपराध ही॥

    कोउ कहे सखि कहा दोष सिसुपाल नरेसे।
    ब्याह करन को गयौ नृपति भीषम के देसै॥
    दलबल जोरि बरात कों ठाढ़ौ हो छबि वबाढ़ि।
    इन छल करि दुलही हरी छुधित ग्रास मुख काढ़ि॥
    आपुने स्वारथी॥

    इहि विधि होइ आवेस परम प्रेमहिं अनुरागीं।
    और रूप पिय चरित तहाँ सब देषन लागीं॥
    रोम-रोम रहे व्यापि कै जिनके मोरन आय।
    तिनके भूत भविष्य कों जानत कौन दुराय॥
    रँगीली प्रेम की॥

    देखत इनकौ प्रेम नेम ऊधौ को भाज्यौ।
    तिमिर भाव आबेस बहुत अपने जिय लाज्यौ॥
    मन मैं कहि रज पाय कौ लै माथे निज धारि।
    परम कृतारथ ह्वै रहौं त्रिभुवन-आनंद वारि॥
    वंदना जोग ए॥

    कबहु कहै गुन गाय स्याम के इन्हें रिझाऊँ।
    प्रेम-भक्ति तो भले स्यामसुंदर की पाऊँ॥
    जिह किहि विधि ये रीझहीं सो हौं करौ उपाय।
    जातें मो मन सुद्ध होइइ दुविधा ग्यानन मिटाय॥
    पाय रस प्रेम कौ॥

    (भ्रमर-आगमन)

    ताही छिन एक भँवर कहूँ तें उड़ि तहँ आयौ।
    ब्रज-बनिता के पुंज माँझ गुंजत छबि छायौ॥
    बैठ्यौ चाहै पाय पर अरुन कमल-दल जानि।
    सो मन ऊधौ को मनौं प्रथमहि प्रगट्यो आनि॥
    मधुप कौ भेष धरि॥

    (भ्रमर के प्रति उपालंभ)

    ताहि भँवर सों कहत सबै प्रति उत्तर बातें।
    तर्क वितर्कन जुक्त रस रूपी घातें॥
    जनि परसौं मम पाँय हो गयौ आनंद-रस चोर।
    तुमहीं सों कपटी हुतो नागर नंद किशोर॥
    इहाँ तें दूरि हो॥

    कोउ कहै रे मधुप तुमैं लाजौ नहिं आवत।
    स्वामी तुम्हारौ स्याम कूबरी दास कहावत॥
    इहाँ ऊँचि पदवी हुती गोपीनाथ कहाय।
    अब जुदुकुल पावन भयौ दासी-जूठन खाय॥
    मरक कहा बोल कौं॥

    कोउ कहै अहो मधुप कौन कहे तुमें मधुकारी।
    लिए फिरत बिष जोग गांठि प्रेमी-बधकारी॥
    रुधिकर पान कियौ बहुत कें अधर अरुन रंगरात।
    अब ब्रज में आए कहा करन कौन कों घात॥
    जात किन पातकी॥

    कोउ कहै रे मधुप भेष उनको क्यों धार्यौ॥
    श्याम पीत गुंजार बेनु, किंकिन झनकार्यौ॥
    बापुर गोरस चोरि कै फिरि आयो या देस।
    इनकौ जिनि मानौ कोऊ कपटी इनको भेस॥
    चोरि जिनि जाय कछु॥

    कोउ कहै रे मधुप कहा मोहन गुन गावै।
    हृदय कपट सों परम प्रेम नाहिन छबि पाबै॥
    जानति हौं हरि भाँति कै सरबसु लियौ चुराय।
    ऐसी बहु ब्रजवासिनी को जु तुमें पतियाय॥
    लहे हम जानिकै॥

    कोउ कहै रे मधुप कहा तू रस की जाने।
    बहुत कुसुम पै बैठि सबन आपुन रस माने॥
    आपुन सों हमको कियौ चाहतु है मतिमंद।
    दुविधा रस उपजाय कै दूषित प्रेम अनंद॥ 
    कपट के छंद सों॥

    कोउ कहै रे मधुप प्रेमपद को सुख देख्यो।
    अबलों थाहि विदेस माहिं कोउ नाहिं विसेष्यो॥
    द्वै सिय आनन पर जमे कारौ पीरौ गात।
    खल अमृत सब पानही अमृत देखि डरात॥
    बादि यहु रस कथा॥

    कोउ कहै अहो मधुरु बहुत निरगुन इन जान्यो।
    तरक वितरकन जुक्ति बहुत उनही में मान्यो॥
    ये इतनी नहिं जानिही वस्तु बिना गुन नाहिं।
    निरगुन भएँ अतीत के सगुन सकल जग माहिं॥
    बूझ जो ग्यान हो॥

    कोस कहै रे मधुप होहिं तुम से जो संगी।
    क्यों न होइ तन स्याम सकल बातन चतुरंगी॥
    गोकुल में जोरी कोऊ पावत नाहिं मुरारि।
    मनों त्रिभंगी आपु है करो त्रिभंगी नारि॥
    रूप गुन सील की॥

    कोउ कहै रे मधुप स्याम जोगी तुम चेला।
    कुबुजा तीरथ जाइ कियो इंद्रीय कौ मेला॥
    मधुबन सुधिहिं विसारि कै आये गोकुल माहिं।
    इत सब प्रेमी बसत हैं तुमरो गाहक नाहिं॥
    पधारौ रावरे॥

    कोउ कहै री सखी साधु मधुवन के ऐसे।
    और तहाँ के सिद्ध लोग ह्वै हैं धौं कैसे॥
    औगुन ही गहि लेत है अरु गुन डारै मेटि।
    मोहन निर्गुन क्यों हों उन साधुन कौं भेंटि॥
    गाँठि कौ खोइकै॥

    कोउ कहै बह मधुप ग्यान उलटौ लै आयौ।
    मुक्ति परे जे रसिक तिन्हैं फिरि कर्म लतायै।
    बेद उपनिषद सार जौ मौहन गुन गहि लेत।
    तिनको आतम सुद्ध करि फिरि फिरि संथा देत॥
    जोग चटसार में॥

    कोउ कहै सखि बिस्व माहिं जेतिक हैं कारे।
    कपट कोटि के परम कुटिल मानुस विधवारे॥
    एक स्याम तन परसि कै जरत आजु लौं अंग।
    ता पाछे फिरि मधुप यह लायो जोग भुअंग॥
    कहा इनको दया॥

    कोउ कहै रे मधुप कहैं अनुरागी तुमकौं।
    कौने गुन धौं जानि परम अचरज है हमकौं॥
    कारौ तन अति पातकी मुख पियरौ जग निंद।
    गुन अवगुन आपुनें आपुहि आनि अलिंद॥
    देख लै आरसी॥

    इहि विधि सुमिरि गोविंद कहत प्रति गोपी।
    भृंग संग्या करि कहन सफल कुल लज्या लोपी॥
    ता पाछें एक बारही रोइँ सकल ब्रजनारि।
    हा! करुनामय नाथ हो! कृष्ण मुरारि॥
    फाटि हिय दृग चल्यो॥

    उमग्यो ज्यों तह सलिल सिंधु ले तन की धारन।
    भीजत अंबुज नीर कंचुकी भूषन हारन॥
    ताहो प्रेम प्रवाह में ऊधौ चले बहाय।
    भले ग्यान की मेड़ हौं ब्रज में प्रगट्यौ आय॥
    कूल के तृन भये॥

    (उद्धव की प्रेम दशा)

    प्रेम विवस्था देखि सुद्ध यों भक्ति प्रकासी।
    दुविधा ग्यान गलानि मंदता सगरी नासी॥
    कहत भयो निस्चै यहै हरि रस की निजपात्र।
    हौं तो कृतकृत ह्वै गयो इनके दरसन मात्र॥
    मेटि मल ग्यान को॥

    पुनि-पुनि कह हरि कहन बात एकांत पठायौ।
    मैं इनको कछु मरम जानि एकौ नहि पायौ॥
    हौं कह निज मरजाद की ग्यान रु कर्म निरूपि।
    ये सब प्रेमासक्त होय रहीं लाज कुल लोपि॥
    धन्य ये गोपिका॥

    जे ऐसी मरजाद मेटि मोहन को ध्यावें।
    काहे न परमानंद प्रेम पदवी को पावें॥
    ज्ञान जोग सब कर्म ते प्रेम ही साँच।
    हौ या पटतर देत हौं हीरा आगे काँच॥
    विषमता बुद्धि की॥

    धन्य-धन्य ये लोग भजत हरि कौं जे ऐसे।
    और कोऊ बिनु रसहि प्रेम पावत है कैसे॥
    मेरे वा लघु ग्यान कौं उर में मद होइ व्याधि।
    अब जान्यौ ब्रज प्रेम की लहत न आधी आधि॥
    वृथा स्रम करि भर्यौ॥

    पुनि कहि परसत पाय प्रथम हो इनहिं निबार्यौ।
    भृँग संग्या करि कहत निंद सबहिन ते डार्यौ॥
    अब ह्वै रहौ ब्रज-भूमि को मारग में की धूरि।
    विचरत पग मो पर धरै सब सुख जीवनमूरि॥
    मुनिनहू दुर्लभैं॥

    कै कह्वै रहौं द्रुम गुल्म लता बेली वन माहीं।
    आवत जात सुभाय परै मोपै परछाहीं॥
    सोऊ मेरे बस नहीं जो कछु करौं उपाय।
    मोहन होहिं प्रसन्न जो यहि वर माँगौं जाय॥
    कृपा करि देंहि जौ॥

    पुनि कहै सब तें साधु संग उत्तम है भाई।
    पारस परसै लोह तुरंत कंचन ह्वै जाई॥
    गोपी प्रेम प्रसाद सों हौं ही सीख्यौ आय।
    ऊधौ तें मधुकर भयो दुबिधा जोग मिटाय॥
    पाय रस प्रेम कों॥

    (मथुरा प्रत्यागमन)

    ऐसे मग अभिलाषा करत मथुरा फिरि आयौ।
    गद्गद पुलकित रोम अंग आवेस जनायौ॥
    गोपी-गुन गावन लग्यौ, मोहन-गुन गयौ भूलि।
    जीवन कों लै का करौं पायौ जीवन मूलि॥
    भक्ति कौ सार यह॥

    ऐसे सोचत, स्याम जहाँ राजत, तह आयो।
    परिकरमा दंडौत प्रेंम सौं हेत जनायौ॥
    कछु निरदयता स्याम की करि क्रोधित दोंउ नैन।
    कछु ब्रजवनिता-प्रेम की बोलत रस भरे बैन॥
    सुनौ नंद लाड़िले॥

    (गोकुल का वृतांत)

    करुनामयी रसिकता है तुम्हारी सब झूठी।
    तब हीं लौं कँहौ लाख, जबहि लों बाँधी मूठी॥
    मैं जान्यौं ब्रज जायकै निरदय तुम्हारौ रूप।
    जे तुमको अबलंबई तिनकौं मेलौ कूप॥
    कौन यह धर्म है॥

    पुनि पुनि कहै हे श्याम जाय वृंदावन रहिए।
    परम प्रेम को पुंज जहाँ गोपी सँग लहिए॥
    और संग सब छाँड़िकै उन लोगन सुख देहु।
    नातरु टूट्यौ जात है अबहीं नेह सनेहु॥
    करोगे तौ कहा?॥

    सुनत सखा के बैन नैन आये भरि दोऊ।
    विवश प्रेम-आवेस रही नाहिंन सुधि कोऊ॥
    रोम-रोम प्रति गोपिका ह्वै गई साँवरे गात।
    काम तरोबर साँवरो ब्रजवनिता हों पात॥
    उलहि अँग-अँग तें॥

    (उद्धव को उपदेश)

    हे सुचेत कहि भले सखा पठये सुधि लावन।
    औगुन हमरे आनि तहाँ तै लगै दिखावन॥
    उनमें मोमैं हे सखा, छिन भरि अंतर नाहिं।
    ज्यों देख्यौ मो माँहि वे, हौं हूँ उनहीं माहिं॥

    गोपी आप दिखाइ एक करिकै बनबारी।
    ऊधौ के भरे नैन डारि व्यामोहक जारी॥
    अपनौ रूप बिहार कौ लीन्हो बहुरि दुराय।
    ‘नंददास’ पावन भयौ सो यह लीला गाय॥
    प्रेम रस पुंजनी॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रास-पंचाध्यायी तथा भँवर-गीत (पृष्ठ 87)
    • संपादक : डॉ. सुधींद्र
    • रचनाकार : नंददास
    • प्रकाशन : विनोद पुस्तक मंदिर हॉस्पिटल रोड, आगरा
    • संस्करण : 1959

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए