इंद्रावती (मालिन खंड)

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नूर मोहम्मद

नूर मोहम्मद

इंद्रावती (मालिन खंड)

नूर मोहम्मद

और अधिकनूर मोहम्मद

    है इंद्रावति विद्याधरी। विद्याधरी आप अवतरी॥

    है पदमिनि मृगसावक नैनी। ज्ञानवंत कोकिल बैनी॥

    जो काहुअ पर ठारै डीढी। सो जन देइ जगत दिस पीढी॥

    अस रूपवती सुंदर आहै। बिनु देखे सब ताहि सराहै॥

    खोलै मुख परभात देखावै। खोलै केस साँझ होइ आवै॥

    है तेहि चंद्र बदन लखि, जगत नयन उंजियार।

    गगन सहस लोचन सो, निखैं तेहिक सिगार॥

    धन दृग मतवारे पैरारे। चितवन बीच सिंधु जा ढारे।

    अधरन सों मुसुकान सोहाई। बात कहत सो झरत मिठाई॥

    सखी अहैं दरपन तेहि माहीं। डारा सुंदर मुख परछाहीं॥

    तासों सखी भई छबि धारी। छबि दाता है प्रान पियारी॥

    सै मन अलक बीच है बाँधे। लेहि सहस जिउ हत्या काँधे॥

    बहुतन तजि जग धंधा, तप साधा तेहि लाग।

    अरुझि रहा मन अलकै, जिउ मारा अनुराग॥

    है तेहि अंस ताक मो दीया। भा उजियारो मदिर हीया॥

    सीसा बीच दिया है धरा। मनु सीसा तारा निर्मरा॥

    है मंदिर सोभित फुलवारी। अहै सुगंध मालति वह बारी॥

    लेहि रहैं आँखिन पर चोरी॥ अहैं सखी छाया तेहि केरी॥

    दिष्ट आवत ताकी छाया। मानहुँ जीव धरे है काया॥

    वोहि डोलै सब डोलै, थिरै-थिरै सब कोइ।

    काया सो जो होत है, सो छाया मों होइ॥

    सात अंतर पट भीतर सोई। रिहत देखत अचिन्ह कोई॥

    बारह मंदिर मो वह प्यारी। रहत सदा है सेज सवारी॥

    हीरा सात-सात जस तारे। हैं मंदिर भीतर उजियारे॥

    दुइ सै अढ़तालिस करी। लागे रतन पदारथ भरी॥

    है मंदिर मो तेरह द्वारा। नौ द्वारा नित रहत उघारा॥

    बाय तेज जल पृथिवी, मानहुँ कैयक ढाउँ।

    बारह मंदिर सवारा, जगपत जाको नाउँ॥

    आवै जाइ पवन दुइ द्वारें। संगी सोहु सबद सँवारे॥

    दसईं द्वार खोलत कोई। तब खोलै जब मरमी होई॥

    दस चेरी धन की गुन भरीं। सेवा बीच रहें नित खरीं॥

    पाँच मंदिर के बाहर रहईं। पाँच मंदिर भीतर गुन गहईं॥

    एक सुध पाँचों सों नित लेईं। सुध चारों चेरिन कहँ देईं॥

    है सरूप वह रानी, रहै सात पट माँह।

    सखियन सों वह प्रगटै, अहैं सखी सब छाँह॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी के कवि और काव्य (पृष्ठ 90)
    • संपादक : गणेशप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : हिंदुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रांत, इलाहाबाद

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