पाहुड़ दोहा-9

pahuD doha 9

मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-9

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    लोहिं मोहिउ ताम तुहुं विसयहं सुक्ख मुणेहि।

    गुरुहुं पासाएं जाम वि अविचल बोहि लहेहि॥

    उप्पज्जइ जेण विबोहु वि बहिण्णउ तेण णाणेण।

    तइलोयपायडेण वि असुंदरो जत्थ परिणामो॥

    तासु लीह दिढ दिज्जइ जिम पढियइ तिम किज्जइ।

    अह गम्मागम्मइ तासु भजेसहिं अप्पुणु कम्मइं॥

    वक्खाणडा करंतु बहु अप्पि दिण्णु णु चितु।

    कणहिं जि रहिउ पयालु जिम पर सगहिउ बहुतु॥

    पंडिय पडिय पंडिया कण छंडिवि तुस कंडिया।

    अत्थे गंथे तुट्ठो सि परमत्थु जाणहि मूढो सि॥

    अक्खरडेहिं जि गव्विया कारणु ते मुणंति।

    वंसविहत्था डोम जिम परहत्थडा धुणंति॥

    णाणतिडिक्की सिक्खि वढ किं पढियइं बहुएण।

    जा सुंधुक्की णिड्डहइ पुण्णु वि पाउ खणेण॥

    सयलु वि को वि तडप्फडइ सिद्धतणहु तणेण।

    सिद्धतणु परि पावियइ चितहं णिम्मलएण॥

    केवलु मलपरिवज्जियउ जहिं सो ठाइ अणाइ।

    तस उरि सतु जगु संचरइ परइ कोइ वि जाइ॥

    अप्पा अप्पि परिट्टियउ कहिं मि लग्गइ लेउ।

    सव्वु जि दोसु महंतु तसु जं पुणु होइ अछेउ॥

    हे जीव! तभी तक तू लोभ से मोहित होकर विषयों में सुख मानता है, जब तक गुरूप्रसाद से अविचल बोध को नहीं पाता।

    जिससे भेदज्ञान उत्पन्न हो—ऐसे त्रिलोक संबंधी ज्ञान से भी जीव बहिरात्मा ही रहता है और उसका परिणाम असुंदर होता है—अच्छा नहीं।

    आत्मा और कर्म के बीच में भेदज्ञान की दृढ़ रेखा खींच लेनी चाहिए अर्थात् जैसा पढ़ा हो, वैसा करना चाहिए। चित्त को इधर-उधर भटकाना नहीं चाहिए—ऐसा करनेवाले की आत्मा से कर्म दूर हो जाते हैं।

    जो विद्वान आत्मा का व्याख्यान तो करते हैं, परंतु अपना चित्त उसमें नहीं लगाते, उन्होंने अनाज के कणों से रहित बहुत-सा पुआल संग्रह किया।

    पंडितों में पंडित हे पंडित! यदि तू ग्रंथ और उसके अर्थों में ही संतुष्ट हो गया है, किंतु परमार्थ को जानता नहीं; तो तू मूर्ख है। तूने कण को छोड़कर तुष को ही कूटा है।

    जो मोक्ष के सच्चे कारण को तो जानते नहीं और मात्र अक्षर-ज्ञान से ही गर्वित होकर घूमते हैं, वे वेश्यापुत्र के समान हैं जो जहाँ-तहाँ हाथ फैलाकर भीख माँगता भटकता है।

    हे वत्स! बहुत पढ़ने से क्या है? तू ऐसी ज्ञान-चिंगारी प्रकट करना सीख—जो प्रज्वलित होते ही पुण्य और पाप को क्षणमात्र में भस्म कर दे।

    हर कोई सिद्धत्व के लिये तड़फड़ाते हैं, पर उस सिद्धत्व की प्राप्ति चित्त की निर्मलता से ही होती है।

    मलरहित केवली अनादि में स्थित हैं। उनके अंतर में समस्त जगत् संचार करता है, परंतु उनके बाहर कोई भी नहीं जा सकता।

    जब आत्मा आत्मा में ही परिस्थित हो जाती है, तब उसे कोई लेप नहीं लगता। और उसके जो भी महादोष होते हैं, वे सब नाश हो जाते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 24)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए