पाहुड़ दोहा-3

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मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-3

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    उम्मूलिवि ते मूलगुण उतरगुणहिं विलग्ग।

    वण्णर जेम पलंबचुय बहुय पडेविणु भग्ग॥

    अप्पा बुज्झिउ णिच्चु जइ केवलणाणरसहाउ।

    ता पर किज्जइ काइं वढ तणु उप्परि अणुराउ॥

    सो णत्थि इह पएसो चउरासीलक्खजोणिमंज्झमि।

    जिणवयणं अलहंतो जत्थ ढुरंढुल्लिओ जीवो॥

    जसु मणि णाणु विप्फुरइ कम्महं हेउ करंतु।

    सो मुणि पावइ सुक्खु वि सयलइं सत्थ मुणंतु॥

    बोहिविवज्जिउ जीव तुहुं विवरिउ तच्चु मुणेहि।

    कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पाण भणेहि॥

    हउं मोरउ हउं सामलउ हउं मि विभिण्णउ वण्णि।

    हउं तणुअंगउ थूलु हउं एहउ जीव मण्णि॥

    वि तुहुं पंडिउ मुक्खु वि वि ईसरु वि णीसु।

    वि गुरु कोइ वि सीसु वि सव्वइं कम्मविसेसु॥

    वि तुहुं कारणु कज्जु वि वि सामिउ वि भिच्चु।

    सूरउ कायरु जीव वि वि उत्तमु वि णिच्चु॥

    पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्मु अहम्मु काउ।

    एक्क वि जीव होहि तुहुं मिल्लिवि चेयणभाउ॥

    वि गोरउ वि सामलउ वि तुहुं एक्क वि वण्णु।

    वि तणुअंगउ थूलु वि एहउ जाणि सवण्णु॥

    जो जीव मूलगुणों का उन्मूलन करके उतरगुणों में संलग्न रहता है, वह डाली से चूके हुए बंदर की तरह नीचे गिरकर भग्न होता है।

    यदि तूने आत्मा को नित्य एव केवल ज्ञान स्वभावी जान लिया तो फिर हे वत्स! शरीर के ऊपर तू अनुराग क्यों करता है।

    यहीं चौरासी लाख योनियों में ऐसा कोई प्रदेश बाक़ी नहीं रहा कि जहाँ जिनवचन को पाकर इस जीव ने परिश्रमण किया हो।

    जिसके चित में ज्ञान का विस्फुरण नहीं हुआ है, तथा जो कर्म के हेतु पुण्य-पाप को ही करता है, वह मुनि सकल शास्त्रों को जानकर भी सच्ची सुध को नहीं पाता।

    बोधिसे विवर्जित (रहित) है जीव! तू तत्व को विपरीत मानता है, क्योंकि कम से निर्मित भावों को तु आत्मा का समझता है।

    मैं गोरा हूँ, मैं साँवला हूँ, मैं विभिन्न वर्णवाला हूँ, मैं दुर्बलाँग हूँ, मैं स्थूल हूँ—ऐसा हे जीव! तू मत मान।

    तू पंडित है मूर्ख, ईश्वर है सेवक, गुरु है शिष्य—ये सब विशेषताएँ कर्मजनित हैं।

    हे जीव! तू किसी का कारण है कार्य, स्वामी है सेवक, शूर है कायर, और उत्तम है नीच।

    पुण्य-पाप, काल, आकाश धर्म, अधर्म एव काया—ये भी तू नहीं, हे जीव! चेतन भाव को छोड़कर इनमें से एक भी तू नहीं है।

    तू गोरा है श्याम, एक भी वर्णवाला तू नहीं है, दुर्बल शरीर या स्थूल शरीर वह भी तू नहीं है—ये तो सब वर्णसहित हैं, तेरा स्वरूप उनसे भिन्न समझ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 14)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

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