पाहुड़ दोहा-14

pahuD doha 14

मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-14

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    मा मुट्टा पसु गरुवडा सयल काल झंखाइ।

    णियदेहहं मि वसंतयहं सुण्णा मढ सेवाइ॥

    रायवयल्लहिं छहस्सहिं पंचहिं रूवहिं चितु।

    जासु रंजिउ भुवणयलि सो जोइय करि मितु॥

    तोडिवि सयल वियप्पडा अप्पहं मणु वि धरेहि।

    सोक्खु णिरंतरु तहिं लहहि लहु संसारु तरेहि॥

    अरि जिय जिणवरि मणु ठवहि विसयकसाय चएहि।

    सिद्धिमहापुरि पइसरहि दुक्खहं पाणिउ देहि॥

    मुंडियमुंडिय मुंडिया सिरु मुंडिउ चितु मुंडिया।

    चितहं मुंडणु जिं कियउ संसारहं खंडणु तिं कियउ॥

    अप्पु करिज्जइ काइं तसु जो अच्छइ सव्वंगओ संतें।

    पुण्णविसज्जणु काइं तसु जो हलि इच्छइ परमत्थें॥

    गमणागमणविवज्जियउ जो तइलोयपहाणु।

    गंगइ गरुवइ देउ किउ सो सण्णाणु अयाणु॥

    पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मएण मइमोहो।

    मइमोहेण णरयं तं पुण्ण अम्ह मा होउ॥

    कासु समाहि करउं को अंचउं।

    छोपु अछोपु भणिवि को वंचउं॥

    हल सहि कलह केण सम्माणउ।

    जहिं जहिं जोवउं तहिं अप्पाणउ॥

    जइ मणि कोहु करिवि कलहीजइ।

    तो अहिसेउ णिरंजणु कीजइ।।

    जहिं जहिं जोयउ तहिं णउ को वि उ।

    हउं वि कासु वि मज्झु वि को वि उ॥

    हे वत्स! गुरु का संग छोड़कर तू काल से मत झख झखना-व्यग्रता मत कर। परमात्मा इसी देह में है, तू शून्य मठ का सेवन क्यों करता है?

    हे जीव! इस संसार मे तू ऐसे योगी को अपना मित्र बना जिसका चित्त राग के कलकल से, छह रसों से तथा पाँच रूपों से रंजित हो।

    समस्त विकल्पों को छोड़कर मन को आत्मा में स्थिर कर, वहीं तुझे निरंतर सुख मिलेगा और तू संसार को शीघ्र तिर जाएगा।

    अरे जीव! तेरे मन में जिनवर को स्थापित कर, विषयों को छोड़, शब्द-महापुरी में प्रवेश कर और दु:खों को जलांजलि दे।

    हे मुंडके! तुमने सिर का तो मुंडन किया, परंतु चित्त को मुंडा। जिसने चित्त का मुंडन किया, उसने संसार का खंडन कर डाला।

    सर्वांग में जो स्थिर है, उस धर्मात्मा को पाप क्या करेगा? उसी प्रकार जो परमार्थ का इच्छुक है, उस सज्जन को पुण्य का भी क्या काम है?

    जो गमनागमन से रहित है और तीन लोक में प्रधान है—ऐसे देव की गरवी गंगा सुज्ञ पुरुषों के लिए सम्यग्ज्ञान प्रगट करनेवाली है।

    पुण्य से विभव मिलता है, विभव से मद होता है, मद से मतिमोह होता है और मतिमोह से नरक होता है। ऐसा पुण्य हमें हो।

    मैं जहाँ-जहाँ देखता हूँ, वहीं सर्वत्र आत्मा ही दिखती है, तब फिर मैं किसकी समाधि करुँ और किसको पूजूँ? छूत-अछूत कहकर किसका तिरस्कार करूँ? लड़ाई-झगड़ा किसके साथ करुँ? और सम्मान किसका करूँ?

    यदि मन क्रोधाग्नि से कलुषित हो जाए तो निरंजन तत्व के रूप निर्मल जल से अत्र का अभिषेक करना कि जहाँ-जहाँ देखूँ वहाँ कोई भी मेरा नहीं है, मैं किसी का हूँ, कोई मेरा है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 30)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए