बरुनी बघंबर औ गूदरी पलक दोऊ

barunii bagha.mbar au guudarii palak do.uu

देव

देव

बरुनी बघंबर औ गूदरी पलक दोऊ

देव

और अधिकदेव

    बरूनी बघंबर और गूदरी पलक दोऊ,

    कोए राते बसन भगोहैं भेस रखियाँ।

    बूड़ी जल ही में दिन जामिनी हू जागी भौंहें,

    सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ।

    अँसुआ फटिक माल लाल डोरी सेली पैन्हि,

    भई हैं अकेली तजि सेली संग सखियाँ।

    दीजिये दरस देव कीजिये संजोगिनी ये,

    जोगिनि है बैठी वा वियोगिनी की अँखियाँ॥

    वियोगिनी की आँखों की बरौनियाँ तो बाघंबर या व्याघ्र चर्म हैं, दोनों पलक गूदड़ी हैं। आँखों के दोनों कोनों या कोयों की लालिमा ही वस्त्रों की लालिमा या भगवा रंग हैं। योगी जैसे दिन-रात जल में खड़ा रहता है, वैसे ही वियोगिनी की आँखें भी दिन-रात वियोग के कारण आँसुओं के जल से युक्त रहती हैं। भौंहें सिर पर छाया हुआ धुआँ है। योगी के पास आग रहती है, योगिनी के पास विरहाग्नि विद्यमान रहती ही है। विरहिणी के आँसू ऐसे लगते हैं जैसे नेत्र रूपी योगी ने स्फटिक मणियों की माला धारण कर रखी हो। आँखों की लालिमा ही योगी के दुपट्टे या सेल्ही के लाल धागे या डोरे हैं। विरह के दुःख से विरहिणी ने संग में रहने वाली सखियों का भी साथ छोड़ दिया है, वह उसी प्रकार अकेली हो गई है जैसे योगी अकेला रहता है। दूती विरहिणी के प्रिय से कहती है कि अब तो आप उसे दर्शन दीजिए और संयोगिनी बनाकर उसे तृप्त कीजिए। उस बेचारी की आँखें तो आपके वियोग में योगिनी बन गई हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देव और उनका रस विलास (पृष्ठ 134)
    • संपादक : डॉ दीनदयाल
    • रचनाकार : देव
    • प्रकाशन : नवलोक प्रकाशन
    • संस्करण : 2004

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