यह समय

ye samay

अपनी ज़मीन का अहसास है

और ही अपनी छत का अधिकार

विश्वामित्र के अहंकार

और देवताओं के नकार के बीच

दंतकथाओं में

आज भी लटक रहा है त्रिशंकु

जिसके लार से बह रही है कर्मनाशा

आज हर कोई लटक रहा है

निर्वात में!

अब तो विचार भी लटक रहे हैं

यह विचारधारा से मुक्ति का समय है

यह परंपरा और आधुनिकता के बीच

लटकने का समय है

यह बंधन और मुक्ति के बीच

लटकने का समय है

यह गाँव और शहर के बीच

लटकने का समय है

अब तो ईश्वर भी लटक रहा है

कभी पकड़ने तो कभी छोड़ देने के बीच

यह समय अपने लिए

अपनों को भूल जाने का समय है

इसी समय में एक आदमी

माउस और की-बोर्ड से खोलता है दरवाज़ा

और प्रवेश कर जाता है

एक दूसरी दुनिया में

वह लगाता है चक्कर गोल-गोल

तभी अचानक याद आती है

कि अरे वह लॉटरी तो निकल चुकी होगी

अरे अब बाज़ार गर्म हो चुका होगा

और वह उछलने लगता है सेंसेक्स की तरह

वह उछलता है तो कभी गिरता भी

गिरने को देख

पाने की भूख से बेचैन आदमी

खोने के भय से डूब जाता है

और जो खो चुका है सब कुछ

वह भय मुक्त हो

खड़ा हो जाता है अपनी बुलंद आवाज़ के साथ

मौसम में गर्मी बढ़ने लगती है

और पहाड़ पर चट्टान का

पिघलना शुरू हो जाता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 36)
  • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 2015

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