हवा हिलती है कि पेड़

hawa hilti hai ki peD

मोहन राणा

मोहन राणा

हवा हिलती है कि पेड़

मोहन राणा

और अधिकमोहन राणा

    यह फ़रवरी का दिन चौरस नहीं इसकी लंबाई तय

    कभी भी घट बढ़ जाता छतरियों के उजास में

    ठहर गया अन्यमनस्क एक कुप्पा बादल

    बँधी पताकाएँ धूमिल हो गई रोवन की नंगी डालियों से

    अब आशा की एक झलक भर बची फीके रंगों पर

    धो गई बारिश उन पर लिखी प्रार्थनाओं को

    हवा उड़ा ले जाती बुदबुदाते उद्गारों को पार उन स्वर्गों की छाया में

    जिनके ओर छोर देखने की जगह नहीं

    मेरी दो पैर जमीन पर

    अपने से बाहर की बात कहूँ कि

    पास आओ मैं उसे हवा से लिख सकता हूँ तुम्हारे कानों में

    जिन्हें दिल ही पढ़ सकता आँखें बंद किए,

    शब्द पत्थर पर उकेरे हों खड़िया से जमीन पर

    स्याही से काग़ज़ पर कि इलैक्ट्राॅन की धड़कन में

    पहचानें तो कोया बंद खोया समय

    जो पर्याप्त हो गुंफन इतना कि नहीं फिर से व्याख्या, पूछे कोई टोक

    यह चलचित्र मन की दीवार पर तैयार तो है न?

    वह कहीं और था पर वह कोई और पूछता अपने से—

    हवा हिलती है कि पेड़

    कोहरे में दिन हुआ लगी आँख अलग हुई अपने सपने से

    जागी दुनिया मेरी मुस्करा कर मैंने अपने भय को जगाया

    एक साथ हम सोते जागते सोचते जीते कि मेरा मन होता कभी

    काश मैं दिखा पाता अपने भय का चेहरा तुम्हें

    तुम्हारे चाहने पर भी जाना चाहता हूँ जहाँ तुम रहती हो

    जहाँ ख़ाली पड़े रहते हैं उखड़ी बंदिशों के भूगोल में सपनों के कैनवस,

    कितनी दूर गया मैं पलट कर देखते डामर में ठिठक गई छाया

    दूर किसी और दूरी के नज़दीक

    अपने क़दमों को नापता हूँ गिनती मुझे गिन रही है

    टिक-टिक मेरी ही भरी चाबी उस घड़ी में एक साँस साथ जनम

    एक पहचान बँधे नाम का

    हर सुबह वही चेहरा और मैं चौंकता भी नहीं ख़ुद को मुँह धोते देख।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मोहन राणा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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