सामने, आस-पास, पीछे

saamane, aasa-paas, piichhe

विजय देव नारायण साही

विजय देव नारायण साही

सामने, आस-पास, पीछे

विजय देव नारायण साही

और अधिकविजय देव नारायण साही

    एक दिन जाने क्यों

    तुम एक चढ़ी हुई प्रत्यंचा की तरह

    तन गए

    और तुम्हारे ऊपर से

    हल्की टंकार के साथ

    एक तीर छूटा

    सामने, अंतरिक्ष की ओर।

    जब भी तुम आँखें उठाओगे

    तुम्हें सामने वह तीर

    जाता हुआ दिखाई देगा—

    उसका कोई लक्ष्य नहीं है।

    क्योंकि जो कुछ भी उसके आगे पड़ता है

    आकाश की तरह रास्ता दे देता है

    वह केवल जाता रहता है

    उजला, जगमगाता।

    सिर्फ़ एक तीर।

    इसके बाद तुम्हारी प्रत्यंचा का

    कोई उपयोग नहीं

    क्योंकि तुम्हारे पास

    दूसरा तीर नहीं है।

    तुम चाहो तो हल्की टंकार

    अब भी सुन सकते हो

    लेकिन वह तीर

    तुम्हें हमेशा ज्यों का त्यों दिखाई देगा

    जाता हुआ...

    सिर्फ़ जाता हुआ...

    मरे हुए पक्षी की तरह

    वह हमेशा तुम्हारे पैरों के पास

    पड़ा रहता है

    और तुम्हारे बोलते ही

    फिर बोलने लगता है।

    तुम कभी भी

    उससे छुटकारा नहीं पा सकते।

    कोशिश कर देखो

    जब तुम चट्टान पर खड़े होकर

    निर्जन पर्वतमालाओं को पुकारोगे

    वह तुम्हारे साथ बोलेगा।

    बहुत दूर चले जाने के बाद

    जब तुम सिर झुका कर बैठोगे

    वह तुम्हें फिर पैरों के पास

    पड़ा हुआ दिखेगा,

    और तुम उसके रंगीन पंखों को

    एक-एक करके गिनोगे।

    तुम चाहो तो

    उसे हाथ में लेकर

    उसके नरम शरीर को

    सहला सकते हो।

    लेकिन उसकी गर्दन लटकी रहेगी

    और पंजे सिकुड़े रहेंगे।

    तुम्हें याद नहीं

    तुमने कब इसका शिकार किया था

    लेकिन तब से ही

    यह तुम्हारा सहचर है

    और तुम बार बार अकेले पड़ कर

    इसे देखने जाते हो।

    समवेत नृत्यों में

    जब तुम औरों के साथ

    तन्मय हो जाते हो

    वह नहीं दिखता

    और तब तुम सोचते हो

    कि क्या अब भी वह

    तुम्हारे एकांत में बोलते ही

    फिर जीवित हो जाएगा?

    तुम बार बार लौट आओगे

    और उस मिट्टी को कुरेदोगे

    जहाँ वह थाल भर फूल की तरह

    उग आता है

    और तुम ख़ुद नहीं जानोगे

    कि तुम क्या देखना चाहते हो

    क्योंकि तुम्हें ज़िंदगी और मौत के अतिरिक्त

    शब्द नहीं दिए गए हैं

    ज़िंदगी और मौत के अतिरिक्त...

    एक काली चट्टान है

    जिस पर बेतहाशा धारा

    अपना सिर पटकती है

    लेकिन हिला नहीं पाती

    सिर्फ़ चट्टान रह रह कर

    धुल जाती है

    और उसके भीगे कलेवर से

    हज़ार सूरज चमकते हैं

    तुम उससे कतरा कर

    निकल नहीं सकोगे

    बार-बार मुड़कर देखोगे

    और कोई कोई चकाचौंध सूरज

    तुम्हें पीछा करता जान पड़ेगा।

    वहाँ भी

    जहाँ चीड़ के ख़ामोश वन हैं

    और सांत्वना देने वाली हिम चोटियाँ हैं

    जहाँ नदी का शोर नहीं पहुँचता

    वहाँ भी तुम्हें लगेगा

    कि पीछा करने वाले जानवर की तरह

    कोई तुम्हारे पीछे रहा है।

    रह-रह कर

    टहनियों के चरमराने की आवाज़ आएगी

    और लगेगा

    कि लताओं में अदृश्य कोई

    रुक कर साँस लेता है।

    सामने ढलते सूरज की रोशनी में

    निर्विघ्नता का प्रतीक तुम्हारा कुटीर

    शिखर पर सँवलाया हुआ दिखेगा

    लेकिन तुम चाहते हुए भी

    कठिन चढ़ाई के कारण

    अपनी रफ़्तार तेज़ नहीं कर सकोगे

    और किसी को पुकार नहीं सकोगे।

    आँखें बंद करने पर

    तुम्हें फिर वही काली चट्टान दिखेगी

    जिस पर बेतहाशा धारा

    अपना सिर पटकती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मछलीघर (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : विजय देव नारायण साही
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1995

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