सहर्ष स्वीकारा है

saharsh swikara hai

गजानन माधव मुक्तिबोध

गजानन माधव मुक्तिबोध

सहर्ष स्वीकारा है

गजानन माधव मुक्तिबोध

और अधिकगजानन माधव मुक्तिबोध

    ज़िंदगी में जो कुछ है, जो भी है

    सहर्ष स्वीकारा है;

    इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

    वह तुम्हें प्यारा है।

    गरबीली ग़रीबी यह, ये गभीर अनुभव सब

    यह विचार-वैभव सब

    दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब

    मौलिक है, मौलिक है

    इसलिए कि पल-पल में

    जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है—

    संवेदन तुम्हारा है!!

    जाने क्या रिश्ता है,

    जाने क्या नाता है

    जितना भी उड़ेलता हूँ,

    भर-भर फिर आता है

    दिल में क्या झरना है?

    मीठे पानी का सोता है

    भीतर वह, ऊपर तुम

    मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर

    मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

    सचमुच मुझे दंड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं

    तुम्हें भूल जाने की

    दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या

    शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं

    झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं

    इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित

    रहने का रमणीय यह उजेला अब

    सहा नहीं जाता है।

    नहीं सहा जाता है।

    ममता के बादल की मँडराती कोमलता—

    भीतर पिराती है

    कमज़ोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह

    छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है

    बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नहीं होती है!!

    सचमुच मुझे दंड दो कि हो जाऊँ

    पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में

    धुएँ के बादलों में

    बिल्कुल मैं लापता!!

    लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!

    इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

    या मेरा जो होता-सा लगता है, होता-सा संभव है

    सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है

    अब तक तो ज़िंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है

    सहर्ष स्वीकारा है

    इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

    वह तुम्हें प्यारा है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 20)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1984

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