वह सब जो सीखा हमने प्रेम में

wo sab jo sikha hamne prem mein

अशोक कुमार पांडेय

अशोक कुमार पांडेय

वह सब जो सीखा हमने प्रेम में

अशोक कुमार पांडेय

और अधिकअशोक कुमार पांडेय

     

    दिया बुझा दिया है अभी मसल कर आहिस्ता
    डूबते धुएँ में देखता हूँ तुम्हारा पिघलता अक्स

    एक

    कैसी हो तुम ठीक इस वक़्त जब आवाज़ें बिखरने लगी हैं धुंध में
    शाम ने अंगड़ाई ली है और हल्के नशे में रात-सी हो रही है उसकी शक्ल

    एकदम तुम जैसी अंगड़ाई...
    शाम हो तुम जाड़ों की
    पोर पर टिकी ओस
    कँपकँपाती ठोस
    तुम हो

    कैसी हो तुम
    ठीक इस वक़्त जब कोई काँटा-सा उलझा है स्मृतियों में मेरी
    दु:स्वप्नों के पार स्थितप्रज्ञ होने के भ्रम को बहा जब भटक गया हूँ भीतर अपने
    घटनाओं के भँवर में हाथ पाँव मारता थक कर पुकारता हूँ जो तुम्हारा नाम
    कैसी हो उसे सुनती तुम ठीक इसी वक़्त
    जब होंठों पर सिलाइयों के निशान पपड़ियों की तरह छूट रहे होंगे
    कौन-सा शब्द ठिठका होगा निःश्वासों के बीच

    हमें चाँद तक जाना था आज की रात
    और हम ट्रैफिक नियमों में उलझ गए

    दो

    उदासियाँ कविताओं में ढलकर होती रहीं गाढ़ी और जम गईं आत्मा पर हमारी

    निरुद्देश्य घूमते कलाई की घड़ियाँ सीनों में होती रहीं पैवस्त और मुस्कुराए
    मुस्कुराए अँधेरे सिनेमा हॉल में चलती निरर्थक फ़िल्म के गानों पर
    अकेले हुए इस क़दर की ख़ुश हुए बैरों की मुस्कुराहटों से
    निःशंक थामे हाथ आशंकाओं की भीड़ में
    शब्दों के बीच घिर आए मौन से डरे
    निडरता से डरते रहे एकांत से
    और चले हम

    चले हम जैसे तटों पर चलती है हवा
    चले जैसे नदियाँ उतरती हैं पहाड़ से
    जैसे चलती हैं चीटियाँ चले हम
    रास्तों ने राहत दी और चलते रहे हम मंज़िलों के पार

    कैसी हो तुम आशंकाओं के बवंडर के बीच बिखरे बाल सँवारती
    ठीक इस वक़्त जब रास्तों पर पसरता जाता है सन्नाटा दमघोंटू स्मॉग-सा

    पूछते तुमसे ख़ुद से पूछता हूँ कुछ सवाल
    और 
    भीड़ भरी सड़क के अनचीन्हे एकांत में
    चूमता हूँ तुम्हारे केश
    पलकों की तरह।

    तीन

    तलाशता हूँ तुम्हें हर उस जगह जहाँ हो तुम
    शीशे के उस पार दीखती हो तुम कहीं खोई-सी
    जहाँ आँखें है दृश्य नहीं हैं वहाँ
    जहाँ दृश्य हैं नहीं जाती वहाँ तक दृष्टि
    मैं अपनी आवाज़ें निर्वात की गोद में दे करता हूँ प्रार्थना
    तुम राधा की तरह पालना उन्हें
    वे तुम्हारी हैं अब

    मैं हूँ यहाँ शीशे के इस पार
    इस कोण पर झुका कि तुम देखो तो देख लो

    चार

    रोता है एक विदूषक
    उसे आँसुओं के मानी बतलाओ

    डूबता है अट्टहास में हत्यारा
    उसे हँसना सिखलाओ

    विद्रोह सिखाओ उन्हें
    जो भूल गए हैं सौंदर्य

    बोलना सिखाओ उन्हें
    मौन छोड़ गया है जिनका साथ

    उन्हें सिखाओ कविता
    जो शब्दों को पैसों-सा बरतते हैं

    दूधिया दाँतों में शर्माती लड़की को सिखाओ
    क़मीज़ से बटन की तरह नोच लेना दुःख

    पत्थर-सी देह का सपना सजाते लड़के को
    आँसुओं में डूबना सिखाओ

    एक बार फिर सिखाओ मुझे...
    वह सब जो सीखा हमने प्रेम में 

    पाँच

    एक और अकेली रात गहराती है
    और नल की आख़िरी बूँद-सा रीतता है इंतज़ार
    तुम जहाँ हो वहाँ एक टुकड़ा है हमारा
    एक यहाँ
    मैं शब्दों के धागे से जोड़ रहा हूँ इसे
    और सुई चुभती है बार-बार हमारी देह में

    मैं हूँ यहाँ
    जैसे किसी लंबी यात्रा का जीर्ण-शीर्ण नक़्शा 
    जैसे किसी पहाड़ी रास्ते का ढाबा कोई पुराना
    जैसे उपेक्षित टापू कोई समंदर के बीच
    जैसे मोची कोई शहर के आख़िरी छोर पर

    तुम आओ बादलों-सी लाँघती दुखों का पहाड़
    प्रतीक्षाओं के मरुस्थल के उस पार
    बच गई ज़रा-सी हरियाली-सा हूँ मैं यहाँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अशोक कुमार पांडेय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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