वास्तविक प्रणयिनी

wastawik pranayini

एन.पी. सिंह

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वास्तविक प्रणयिनी

एन.पी. सिंह

और अधिकएन.पी. सिंह

    कल्पना ही तो कहेंगे

    जो कभी अवश्यंभाव्य-सी थी,

    स्निग्ध स्पर्श का मधुमास लगती थी,

    जो लगती थी नितांत अपनी है,

    जिससे फ़ासला चंद समय की धारा का था

    वह भी अपनी सीमा के भीतर,

    पर आज इतना दुर्गम्य हो गया

    कि पाना तो है, स्पर्श का एहसास भी

    करा देता है चट्टानी पीड़ा का बोध।

    झकझोरता है मेरी समस्त निजता को,

    संपूर्णता के दावे को,

    क्षमता में निहित समस्त संभावना को,

    सोचता हूँ कि उसे पीड़ा की

    अनेक परतों में लपेट दूँ,

    तीखी अनुभूति के ताप में

    उसे पिघलाकर

    कर दूँ अंति संस्कार,

    पर सब निरर्थक।

    छील देता है वह

    मेरा खुरदरा अस्तित्व,

    मेरी प्रत्येक प्यास में—

    व्याकुलता है रसपान की।

    है शक्तिपुंज वह हर धड़कन का,

    मेरी हर वेदना

    उसके सुखद-स्पर्श से जनित विरह है।

    वही मेरा अभिप्रेत है, लक्ष्य है,

    यही कारण, उसकी अप्राप्यता

    गहराती है वेदना को,

    घोलती है विष आतंककारी,

    हर रोम झुलसता है ज़िंदगी का

    प्रचंड ताप में धीरे-धीरे,

    मुझे मेरी मृत्यु के हर

    क्षण का देते हुए एहसास।

    इन्हीं लम्हों में झलकता है बिंदु

    झीना-सा परदे के भीतर

    घुप्प अँधेरे के झींगुर की तरह और

    देता है मौन संदेश मुझे,

    तुम्हारी सोच में इतना संकुचन क्यों,

    आत्मग्लानि की दग्धता क्यों?

    इस विस्तीर्ण ब्रह्मांड में

    खोज कर ज्योति की,

    मिलेगी प्रणयिनी की नवीन अवधारणा,

    हताशा से संतरण का।

    मार्ग भी यही है,

    शोध का उपकरण भी।

    पर क्षण में लगता है,

    कहीं पराजित मनः स्थिति का

    छलावापूर्ण स्रोत तो नहीं,

    या अवस्था मरणधर्मिता का कारक।

    पर सोचता हूँ कि

    क्या मेरे प्रिय का रूप

    मात्र एक था?

    नितांत जड़, प्लवनशीलता से शून्य?

    परकटे पक्षी की फड़फड़ाहट

    आज मेरी नियति है या

    नवीन पंखों के आगमन की

    पूर्वपीठिका है यह?

    या पूर्व संध्या है

    मेरे प्रिय को उद्भासित करने वाले

    नवीन भास्कर की?

    इन तार्किक रेशमी बालों का बादल

    मेरे प्रिय का मुखौटा बन गया है।

    काश! मैं देख पाता

    प्रिय के वास्तविक स्वरूप को,

    मोहक, भयावह या विस्फोटक,

    जो कुछ यथार्थ सिंचित हो,

    यही अज्ञात प्रणयिनी का शोध

    मेरी वेदना है।

    अंतस से निकलता है तीखा-सा स्वर,

    भेदता है पीड़ा के

    गहराते हुए बादलों को,

    जिससे वृष्टि होगी

    नवीन आस्था के जल की।

    तोड़ना होगा दर्शनों का उलझा छलावा,

    पहचानना होगा वास्तविक जनशक्ति को,

    भूलना होगा उस पथ को,

    जो नितांत ‘स्व’ में

    पीड़ा के मणि तलाशता है।

    तलाशनी होगी पहचान अपनी

    सामाजिक शक्तियों के गर्भ में,

    करना होगा जनवादीकरण

    अपने प्रिय के स्वरूप का,

    देना होगा विस्तार अपरिमित

    ‘स्व’ की संकीर्ण परिधि को।

    पिघलना होगा अहं को

    ‘हम’ की ज्वाला में,

    छेदना होगा मस्तिष्क पर छाए

    हताशा के कुहासे को,

    मिलाना होगा क़दम से क़दम

    गाँव-गलियों से संसद तक।

    छीलनी होगी अवधारणा संभ्रांत की,

    पाना होगा भावी का संकेत,

    पाना होगा भावी का संकेत

    उपेक्षित बहुजन के समीकरण से।

    तभी प्रणयिनी होगी ज्ञात,

    निश्चय ही प्रिय का यह स्पर्श

    होगा स्निग्ध और मोहक, और

    छँट जाएगा अनिर्णय का दुःस्वप्न।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द! कुछ कहे-अनकहे से... (पृष्ठ 75)
    • रचनाकार : एन.पी. सिंह
    • प्रकाशन : प्रभात प्रकाशन
    • संस्करण : 2019

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