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श्रीनरेश मेहता

और अधिकश्रीनरेश मेहता

     

    एक

    नीलम वंशी में से कुंकुम के स्वर गूँज रहे!

    अभी महल का चाँद
    किसी आलिंगन में ही डूबा होगा
    कहीं नींद का फूल मृदुल
    बाँहों में मुसकाता ही होगा
    नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे!

    अमराई में दमयंती-सी
    पीली पूनम काँप रही है
    अभी गई-सी गाड़ी के
    बैलों की घंटी बोल रही है
    गगन-घाटियों से चर कर ये निशिचर उतर रहे!

    अंधकार के शिखरों पर से
    दूर सूचना-तूर्य बज रहा
    श्याम कपोलों पर चुंबन का
    केसर-सा पदचिह्न ढल रहा
    राधा की दो पंखुरियों में मधुबन झीम रहे!

    भिनसारे में चक्की के संग
    फैल रहीं गीतों की किरने
    पास हृदय छाया लेटी है
    देख रही मोती के सपने
    गीत न टूटे जीवन का, यह कंगन बोल रहे!

    दो

    हिमालय के तब आँगन में—
    झील में लगा बरसने स्वर्ण
    पिघलते हिमवानों के बीच
    खिलखिला उठा दूब का वर्ण
    शुक्र-छाया में सूना कूल देख
    उतरे थे प्यासे मेघ
    तभी सुन किरणाश्वों की टाप
    भर गई उन नयनों में बात
    हो उठे उनके अँचल लाल
    लाज कुंकुम में डूबे गाल
    गिरी जब इंद्र-दिशा में देवि
    सोम रंजित नयनों की छाँह
    रूप के उस वृंदावन में!
    व्योम का ज्यों अरण्य हो शांत
    मृगी-शावक-सा अँचल थाम
    तुम्हें मुनि-कन्या-सा घन-क्लांत
    तुम्हारी चंपक-बाँहों बीच
    हठीला लेता आँखें मीच
    लहर को स्वर्ण कमल की नाल
    समझ कर पकड़ रहे गज-बाल,
    तुम्हारे उत्तरीय के रंग
    किरन फैला आती हिम-शृंग
    हँसी जब इंद्र दिशा से देवि
    सोम रंजित नयनों की छाँह
    मलय के चंदन-कानन में!

    हिमालय के तब आँगन में!

    तीन

    थके गगन में उषा-गान!

    तम की अँधियारी अलकों में
    कुंकुम की पतली-सी रेख
    दिवस-देवता का लहरों के
    सिंहासन पर हो अभिषेक
    सब दिशि के तोरण-बंदनवारों पर किरणों की मुसकान!

    प्राची के दिक्-पाल इंद्र ने
    छिटका सोने का आलोक
    विहगों के शिशु-गंधर्वों के
    कंठों में फूटे मधु-श्लोक
    वसुधा करने लगी मंत्र से वासंती रथ का आह्वान!

    नालपत्र-सी ग्रीवा वाले
    हंस-मिथुन के मीठे बोल
    सप्तसिंधु में घिरे मेघ-से
    करें उर्वरा दें रस घोल
    उतरे कंचन-सी बाली में बरस पड़ें मोती के धान!

    तिमिर-दैत्य के नील-दुर्ग पर 
    फहराया तुमने केतन
    परिपंथी पर हमें विजय दो
    स्वस्थ बने मानव-जीवन
    इंद्र हमारे रक्षक होंगे खेतों-खेतों औ' खलिहान!

    सुख-यश, श्री बरसाती आओ
    व्योमकन्यके! सरल, नवल
    अरुण-अश्व ले जाएँ तुम्हें
    उस सोमदेव के राजमहल
    नयन रागमय, अधर गीतमय बनें सोम का कर फिर पान!

    चार 

    किरणमयी! तुम स्वर्ण-वेश में
    स्वर्ण-देश में!

    सिंचित है केसर के जल से
    इंद्रलोक की सीमा
    आने दो सैन्धव घोड़ों का
    रथ कुछ हल्के-धीमा,
    पूषा के नभ के मंदिर में
    वरुणदेव को नींद आ रही
    आज अलकनंदा
    किरणों की वंशी का संगीत गा रही
    अभी निशा का छंद शेष है अलसाए नभ के प्रदेश में!

    विजन घाटियों में अब भी
    तम सोया होगा फैलाकर पर
    तृषित कंठ ले मेघों के शिशु
    उतरे आज विपाशा-तट पर

    शुक्र-लोक के नीचे ही
    मेरी धरती का गगन-लोक है
    पृथिवी की सीता-बाँहों में
    फ़सलों का संगीत लोक है
    नभ-गंगा की छाँह, ओस का उत्सव रचती दूब देश में!

    नभ से उतरो कल्याणी किरनो!
    गिरि, वन-उपवन में
    कंचन से भर दो बाली-मुख
    रस, ऋतु मानव-मन में
    सदा तुम्हारा कंचन-रथ यह
    ऋतुओं के संग आए
    अनागता! यह क्षितिज हमारा
    भिनसारा नित गाए
    रैन-डूँगरी उतर गए सप्तर्षी अपने वरुण-देश में!

    पाँच

    अश्व की वल्गा लो अब थाम
    दिख रहा मानसरोवर कूल!

    गौर-कंधों पर ग्रीवा डाल
    पूछते हंसों के ये बाल—
    स्वर्ग से दिखती है यह झील
    हिमालय लगता होगा पाल
    तुम्हें वे यश-पत्नियाँ देख, करेंगी गीता सुना अनुकूल!

    तराई-वन जब कर लो पार
    वहीं हैं नगर, ग्राम औ खेत
    कहीं तट की मृदु बाँहें डाल
    सो रही होंगी यमुना-रेत
    साँझ हम गंगाजल से किरन-कलश फिर भर देंगे इस कूल!

    कहीं शिप्रा में श्रद्धा एक
    अर्घ्य दे, गुनती होगी श्लोक
    रंगमय कर लहरों को देवि
    माँग भर देना, रथ को रोक
    गगन का श्रेष्ठ खड़ा है नील, बाँह में लिए भोर का फूल!

    पुष्ट चिट्टे वृषभों को देख
    लगेगा दिन बन आया बैल
    चीर भूमा का उर-आँधार
    उगे सीता में जीवन-बेल
    पुष्पवती पृथ्वी को देना घाम, हँसे अंचल के चावल-फूल!

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 49-53)
    • संपादक : प्रभाकर श्रोत्रिय
    • रचनाकार : श्रीनरेश मेहता
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2015

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