उधार

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अज्ञेय

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    सवेरे उठा तो धूप खिलकर छा गई थी

    और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।

    मैंने धूप से कहा : मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार?

    चिड़िया से कहा : थोड़ी मिठास उधार दोगी?

    मैंने घास की पत्ती से पूछा : तनिक हरियाली दोगी—

    तिनके की नोक भर?

    शंखपुष्पी से पूछा : उजास दोगी—

    किरण की ओक भर?

    मैंने हवा से माँगा : थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,

    लहर से : एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।

    मैंने आकाश से माँगी

    आँख की झपकी भर असीमता—उधार।

    सबसे उधार माँगा, सबने दिया।

    यों मैं जिया और जीता हूँ

    क्योंकि यही सब तो है जीवन—

    गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,

    गंधवाही मुक्त खुलापन,

    लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,

    और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का :

    ये सब उधार पाए हुए द्रव्य।

    रात के अकेले अंधकार में

    सपने से जागा जिसमें

    एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर

    मुझसे पूछा था : ‘क्यों जी,

    तुम्हारे इस जीवन के

    इतने विविध अनुभव हैं

    इतने तुम धनी हो,

    तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे उधार जिसे मैं

    सौ गुने सूद के साथ लौटाऊँगा—

    और वह भी सौ-सौ बार गिन के—

    जब-जब मैं आऊँगा?’

    मैंने कहा : प्यार? उधार?

    स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे

    अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।

    उस अनदेखे अरूप ने कहा : ‘हाँ,

    क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—

    यह अकेलापन, यह अकुलाहट,

    यह असमंजस, अचकचाहट,

    आर्त्त अननुभव,

    यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय

    विरह-व्यथा,

    यह अंधकार में जागकर सहसा पहचानना कि

    जो मेरा है वही ममेतर है।

    यह सब तुम्हारे पास है

    तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार—

    मुझे जो चरम आवश्यकता है।’

    उसने यह कहा,

    पर रात के घुप अँधेरे में

    मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ :

    अनदेखे अरूप को

    उधार देते मैं डरता हूँ :

    क्या जाने

    यह याचक कौन है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 127)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : अज्ञेय
    • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
    • संस्करण : 1997

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