एक
सहस्राब्दी के सिरे तक बढ़ते-बढ़ते
और एक से चतुर्मुख तक
विराट होते-होते
कबीर ने हँसकर कहा हिंदू से
तो तुम अभी तक
हिंदू ही हो?
शिखा उसी तरह बढ़ाए हो?
जनेऊ वैसे ही धारण किए हो?
सारे कर्मकांड करते हो—
छह सौ साल पूर्व की ही तरह?
कबीर ने चिंतित होकर
कहा मुसलमान से
तुममें कोई फ़र्क़ नहीं आया?
तुम अभी भी
मस्जिद पर चढ़कर अज़ान देते हो
तुम्हारी औरतें
आज भी पर्दानशीन हैं
नई रोशनी का तुम्हें
कुछ पता नहीं?
तुममें
मज़हबी कट्टरता
बरक़रार है अभी भी?
कबीर ने सिख से
हैरतज़दा स्वर में कहा
वाहे गुरुजी दा खालसा ने
सिखाया था तुम्हें
कि अंधी उग्रता का
कोई अंत नहीं
अपने हिंदू भाई को समझाओ
कि तुम तो पंचपियारे थे
अमृत छका था तुमने
और नानकदेव भी तो बोलता था कबीर बानी
तब फिर यह ऊहापोह क्यों?
कबीर ने
ईसाई से कहा
जीसस क्राइस्ट तो
कश्मीर रहकर गए थे
और दुनिया भर की
मज़लूम जातियों को मुहब्बत बाँटते
सारे धर्मों को अपना बनाते
एक ही संदेश युसूफ़ योहोन्ना को
कि इंसानियत और मुहब्बत का नाम ही
ईश्वर है
और बेटा है वह
इसी ईश्वर का
तब तुम्हें ईसाइयत ही
क्यों नज़र आती है सबसे ऊपर?
कबीर ने हिंदू से पूछा
सवाल किया मुसलमान से
सिख की ओर देखा
नज़रें उठाई ईसाई की तरफ़
उसने पूछा सारी दुनिया से—
क्या यह वही दुनिया है
जिसमें वह स्वयं रह रहा है?
या वह दुनिया—
जो छह सौ वर्ष पूर्व थी?
‘कोई मुझे उत्तर क्यों नहीं देता?’
सहस्राब्दी के सिरे तक
बढ़ते-बढ़ते
और एक से चतुर्मुख तक
विराट होते-होते
अपने फ़क़ीरी प्रकाशवृत्त में चमकते
क्षुब्ध तेवर के साथ
कबीर ने पूछा हिंदू भाई से
समंदर-सी गहरी चिंता लिए
सवाल किया मुसलमान बंदे से
हैरानी से देखा सिक्ख पियारे को
और अपने दुख के सलीब पर टँगे-टँगे
मुख़ातिब हुआ
ईसाई बिरादर से
एक से चतुर्मुख तक
विराट होते-होते
बढ़ते-बढ़ते
सहस्राब्दी के सिरे तक!
दो
कबीर
धड़कता है
मेरी नस-नस में
पोर-पोर में
दंभी पर्वतों के
भयानक अंतर्विरोधों की
लगातार जमती बर्फ़ को
अपनी अग्निधर्मा बानी के
निडर चरख़े पर कातता
तार-तार करता पाखंड को
काशी का वह जुलाहा
सदियों पर सदियाँ पार करते
आज भी सक्रिय है—जीवंत
जाति-पाँति पर
कर्मकांड पर
अस्पृश्यता पर
कोड़े पर कोड़े बरसाता
निरपेक्ष भाव से
अपने जीवन-कर्म में सतत रत
जो
जन्मा और जिया
काशी में
मगर दीमक लगी भित्तियों पर
क़रारा प्रहार करते हुए
जिसने मगहर में
बड़े जतन से बुनी
जीवन की उजली चदरिया
रख दी ज्यों की त्यों
काल की अनंत शैय्या पर!
यह समाधि है कबीर की
रोशनी फूटती है
सुगंधित फूलों की
इसे अपने भीतर देखो
महसू करो इसे
अपने अभ्यंतर में!
तीन : चरख़ा
एक चरख़ा—
उससे उठती घर्र-घर्र की आवाज़,
रुई के पोंगे
उससे निकलता सूत।
एक देश—
उसमें रहते हिंदू और मुस्लिम
अनंतर सिख और ईसाई।
एक काशी—
गंगा का पवित्र जल,
मोक्ष का द्वार।
एक मगहर,
नरक का शिलालेख।
और एक कबीर—
चरख़े से उठती घर्र-घर्र की आवाज़;
कातता एक-एक सूत
फटकारता हिंदू को
कोड़े लगाता मुसलमान को
अनंतर, सिक्ख को
और ईसाई को भी!
एक चरख़ा
एक देश
एक काशी
एक मगहर
और एक की कबीर!
- पुस्तक : अस्ति (पृष्ठ 280)
- रचनाकार : उद्भ्रांत
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
- संस्करण : 2011
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