टूटते घर

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संजय कुंदन

संजय कुंदन

टूटते घर

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    बेघर तो ख़ैर बेघर थे ही

    जिनके घर थे

    उनमें से भी कई

    अपने घर को घर नहीं मानते थे

    कोई कहता था

    वह घर नहीं

    पागलख़ाना है पागलख़ाना

    किसी को अपना घर मरुस्थल की तरह लगता था

    जिसमें कुछ छायाएँ कभी-कभार डोलती नजर आती थीं

    अब घरों में सुकून नहीं था

    नींद नहीं थी

    एक आदमी नींद की तलाश में

    घर से निकलकर एक पेड़ के नीचे लेट जाता था

    घर में रोना तक मुश्किल था

    सिर्फ़ रोने के लिए एक स्त्री

    सड़क के एक खंभे से सटकर खड़ी हो जाती थी

    जो घर बाहर से दिखते थे

    चमकदार, सुसज्जित

    वे अंदर से झुलसे हुए थे

    एक धक्के से गिर सकती थी उनकी दीवारें

    घर टूट रहे थे

    पर कोई उन्हें बचाने नहीं रहा था

    कोई औरत घर बचाने के लिए

    अपनी हड्डी गलाने को तैयार नहीं थी

    अपने सपने को तंबू की तरह तानकर रहना उसे मंज़ूर था

    पर घर में रहकर बार-बार छला जाना नहीं

    घर तहस-नहस हो रहे थे

    और बस भी रहे थे

    नया घर बसाने वाले भी आश्वस्त नहीं थे

    कि उनका घर कितने दिनों तक घर बना रहेगा

    उन्हें अपनी-अपनी उड़ान की चिंता थी

    वे ज़मीन में पैर धँसाकर रहने को तैयार नहीं थे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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