उसी का समाहार

usi ka samahar

कृष्णमोहन झा

कृष्णमोहन झा

उसी का समाहार

कृष्णमोहन झा

और अधिककृष्णमोहन झा

    अगर शहर में होता

    तो शायद उधर नज़र ही नहीं जाता

    मगर यह

    शहर के क़हर से दूर विश्वविद्यालय का परिसर था

    जहाँ चाय-बागान से छलकती आती हुई अबाध हरियाली

    पूरे दृश्य को

    स्निग्ध स्पर्श में बदल रही थी

    और वहीं पर यह अभूतपूर्व घटना

    चुपके से

    आकार ले रही थी…

    हुआ यह था

    कि क्वार्टर की ओर जाने वाली खुली सड़क के किनारे

    एक पेड़ था कोने पर

    जिसके नीचे एक आदमी खड़ा था

    पहली नज़र में

    विह्वल करने वाला ही दृश्य था यह

    क्योंकि आदमी के हाथ में कुल्हाड़ी नहीं थी

    और उसे देखने से लगता था

    कि शायद

    सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है…

    कि तभी

    उसके पौरुष से

    एक धार सहसा उछली

    जिसके साथ-साथ मोबाइल की रिंगटोन बजने लगी

    यक़ीनन यह एक नए किस्म का यथार्थ था

    जिसके सामने मैं खड़ा था

    निहत्था

    अलबत्ता घटना एक ही थी

    पर सत्य थे कई

    पहला सत्य कहता था

    कि आदमी का उमड़कर बाहर रहा है कुछ

    इसलिए बज रहा है

    दूसरा सत्य कहता था कि वह बज रहा है

    इसलिए उससे फूट रही है जलधारा

    तीसरा सत्य कहता था

    कि वह आदमी वृक्ष को सींच रहा है

    और चौथे सत्य को कहना था

    कि कर्ता अनुपस्थित है यहाँ

    बस कुछ हो रहा है…

    और जो कुछ हो रहा था

    प्रस्तुत मंत्र है उसी का समाहार—

    सोने की छुच्छी,रूपा की धार।

    धरती माता, नमस्कार॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : कृष्णमोहन झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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