उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल!

utni hi janmegi nirmala putul!

निर्मला पुतुल

निर्मला पुतुल

उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल!

निर्मला पुतुल

और अधिकनिर्मला पुतुल

    यह तो लगी है आग

    इस छोर से उस छोर तक

    तुम्हारी व्यवस्था में

    उसमें जल रही हूँ मैं

    और रह-रहकर भड़क रही है

    मेरे भीतर आग...

    इसलिए चुप नहीं रहूँगी अब

    उगलूँगी तुम्हारे विरुद्ध आग

    तुम मना करोगे जितना

    उतनी ही ज़ोर से चीख़ूँगी मैं

    मुझे पता है

    झल्लाकर उठाओगे पत्थर

    और दे मारोगे सिर पर मेरे

    पर याद रहे

    नहीं टूटूँगी इस बार

    बिखरूँगी नहीं तिनके की भाँति

    तुम्हारे भय की आँधी से

    अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर

    चकनाचूर हो जाएँगे बल्कि

    तुम्हारे हाथ के पत्थर

    और अगर किसी तरह हारी इस बार भी

    तो कर लो नोट दिमाग़ की डायरी में

    आज की तारीख़ के साथ

    कि गिरेंगी जितनी बूँदें लहू की धरती पर

    उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल

    हवा में मुट्ठी-बँधे हाथ लहराते हुए!

    स्रोत :
    • पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 90)
    • रचनाकार : निर्मला पुतुल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2005

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