जनसेवा एक्सप्रेस

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सतीश नूतन

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सतीश नूतन

और अधिकसतीश नूतन

     

    एक

    सीटी बजाते 
    डब्बों में लादे
    गाँव-गाँव की जवानियाँ 
    चली जा रही जनसेवा 
    सहरसा से पंजाब 

    हमारे टीसन पर रोज़ रुकती है 
    आज कुछ ज़्यादा ही देर रुकी जनसेवा 

    कह आए हो न मेहरारू से 
    कि इस बार अकेले देख ले सावनी फुहार 
    बता आए हो न उसे 
    जब शीतलहर में 
    गर्म नहीं हो गेनरी
    तो बिछा लिया करे मोटा पुआल 
    पूछा 
    रमेसर, बटेसर जैसे नौजवान मज़दूरों से 
    और चिनिया बदाम के छिलकों से भरी 
    बोगी में बैठ जाने को कहा जनसेवा ने 

    प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े
    बूढ़े धनेतर को 
    खिड़की पर बुलाया  
    विश्वास दिलाया जनसेवा ने 
    कि उकरिन हो जाओगे इस बार 
    महाजन से 
    बेटे के साथ 
    लौट आएँगी 
    तुम्हारी ख़ुशियाँ 

    बच्चे 
    जो बाप को छोड़ने के बहाने
    बड़का बाबू के संग 
    देखने आए थे रेलगाड़ी 
    ख़रीदवाने पावरोटी
    चिनिया केला 
    डस्टबीन के पास उदास खड़े 
    महसूस रहे थे 
    बिछोह का नया अनुभव 

    जब भी जाओ 
    हाजीपुर टीसन 
    अक्सर यही दिखेगा मंजर 
    जनसेवा का। 

    दो 

    प्लेटफ़ॉर्म पर 
    आ चुकी है जनसेवा 
    पॉलिश वाले बच्चे 
    जा चुके हैं डब्बों में तलाशने 
    जूते-चप्पल चमड़े के 

    प्लेटफ़ॉर्म पर 
    लौट चुके हैं बच्चे 
    ख़ाली हाथ 
    निराश 
    जनसेवा से। 

    तीन

    आ रही है जनसेवा 
    तपती झुलसती झुग्गियों में झोंकती ठंडी हवा 

    झोले में ठूँसे आजी की साड़ी
    बउआ का बाज़ा
    मुनिया का लाल टेस फराक
    सुन्नर-मुन्नर के लिए 
    प्लास्टिक की चप्पलें ला रही है 
    आ रही है जनसेवा 
    नंगे बदन को ढक देने का 
    पूरा संकल्प लिए साथ 
    इंदला-बो 
    जिस सरफ में डुबोएगी 
    अपनी लगनउती साड़ी
    भोनू 
    जिस साबुन को रगड़-रगड़ 
    छुड़ाएगा अपनी देह का मइल 
    मिटाएगा बदबू पसीने की
    टोला-टपरी के लोग 
    जिस ठंडे तेल से दूर करेंगे 
    माथे का दर्द 
    अकलू
    जिस रेडियो पर सुनेगा लोकगीत 
    सब ला रही है 
    आ रही है जनसेवा 
    महाजन का हिंगलोट फाड़ने
    गाने गीत फागुन के।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सतीश नूतन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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