विद्रोही

widrohi

हम ज्योति पुंज दुर्दम, प्रचंड,

हम क्रांति-वज्र के घन प्रहार,

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम गरज उठे कर घोर नाद,

हम कड़क उठे, हम कड़क उठे,

अंबर में छायी ध्वनि-ज्वाला,

हम भड़क उठे, हम भड़क उठे!

हम वज्रपाणि हम कुलिश हृदय,

हम दृढ़ निश्चय, हम अचल, अटल

हम महाकाल के व्याल रूप,

हम शेषनाग के अतुल गरल!

हम दुर्गा के भीषण नाहर,

हम सिंह-गर्जना के प्रसार

हम जनक प्रलय-रण-चंडी के,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हमने गति देकर चलित किया

इन गतिविहीन ब्रह्मांडों को,

हमने ही तो है सृजित किया

रज के इन वर्तुल भांडों को;

हमने नव-सृजन-प्रेरणा से

छिटकाये तारे अंबर में,

हम ही विनाश भर आए हैं

इस निखिल विश्व-आडंबर में;

हम स्रष्टा हैं, प्रलयंकर हम,

हम सतत क्रांति की प्रखर धार—

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हमने अपने मन में की ‘हाँ!'

औ' प्रकृति नर्तकी नाच उठी!

हमने अपने मन में की 'ना!'

औ' महाप्रलय की आँच उठी!

जग डग-मग-डग-मग होता है

अपने इन भृकुटि-विलासों से,

सिरजन, विनाश, होने लगते

इन दायीं-बायीं श्वासों से;

हम चिर विजयी; कर सका कौन

हठ ठान हमारा प्रतीकार?

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

अपने शोणित से ऊषा को

हम दे आये कुंकुम-सुहाग,

आदर्शों के उद्दीपन से

हमने रवि को दी अमित आग;

माटी भी उन्नत-ग्रीव हुई

जब नव चेतनता उठी जाग,

जीवन-रँग फैला, जब हमने

खेली प्राणों की रक्त फाग;

हो चला हमारे इंगित पर

जग में नव जीवन का प्रसार,

हम जनक प्रलय-रण-चंडी के,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हो गयी सृजित संगीत कला,

हमने जो छेड़ी नवल तान

उन्मुक्त हो गये भाव-विहग

जो भरी एक हमने उड़ान;

हमने समुद्र-मंथन करके

भर दिये जगत् में अतुल रत्न,

संसृति को चेरी कर लाये

अनवरत हमारे ये प्रयत्न!

संस्कृति उभरी, लालित्य जगा,

सुन पड़ी सभ्यता की पुकार,

जब विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

बढ़ चले मार्ग पर दुर्निवार!

हम 'अग्ने! नय सुपथा राये...' का

अनल-मंत्र कह जाग उठे,

हम मोह, लोभ, भय, त्रास, छोह

सब त्याग उठे, सब त्याग उठे,

हम आज देखते हैं जगती,

यह जगती, यह अपनी जगती,—

यह भूमि हमारी विनिर्मिता,

शोषिता, परायी-सी लगती!

रवि-निर्माताओं के भू पर,

बोलो, यह कैसा अंधकार?

क्या निद्रित थे हम अति कोही,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

क्या अंधकार? हाँ अंधकार!

याँ अंधकार!! वाँ अंधकार!!

है आज सभी दिशि अंधकार;

हैं सभी दिशा के बंद द्वार;

ज्योतिष्पुंजों के हम स्रष्टा,

हम अनल-मंत्र के छंद-कार,

इस दुर्दम तम को क्यों दलें?

हम सूर्य-कार, हम चंद्र-कार!

आओ, हम सब मिलकर नभ से

ले आएँ रवि-शशि को उतार!!!

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

चेतन ने जब विद्रोह किया,

तब जड़ता में जीवन आया;

जीवन ने जब विद्रोह किया

तब चमक उठी कंचन-काया;

यह जो विकास, उत्क्रमण, प्रगति,

प्रकटी जीवन के हिय-तल में,—

वह है केवल विद्रोह छटा

जो खिल उठती है पल-पल में!

तब, बोलो, हम क्यों सहन करें

दुर्दांत तिमिर का अनाचार ?

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम खंड-खंड कर चुके गर्व

अतुलित मदमत्त करोड़ों का;

है इतिहासों को याद हमारा

भीम प्रहार हथौड़ों का!

चुके अभी तक कई-कई

घनघोर सूरमा बड़े-बड़े,

जा लखो, हमारे प्रांगण में

उनके हैं बस कुछ ढूह खड़े!

है इतिहासों को भी दूभर

उनके साम्राज्यों का विचार,

उनके आगे टिक सका कौन,

जो हैं विद्रोही दुर्निवार!

हमने संस्कृति का सृजन किया,

दुष्कृतियों को विध्वस्त किया,

कुविचारों के चढ़ते रवि को

इक ठोकर देकर अस्त किया!

हम काल-मेघ बन मँडराये,

हम अशनि-कुलिश बन-बन गरजे,

सुन-सुन घनघोर निनाद भीम

अत्याचारी जन-गण लरजे;

अब आज, निराशा-तिमिर देख,

लरजेंगे क्या हम क्रांतिकार?

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

सोचो तो कितना अहोभाग्य,—

पड़ा हमीं पर क्रांति-भार!

इस अटल ऐतिहासिकता पर,

हम क्यों आज होएँ निसार?

यह क्रांति-काल, संक्रांति-काल,

यह संधि-काल युग-घड़ियों का,

हाँ! हमीं करेंगे गठ-बंधन,

युग-जंज़ीरों की कड़ियों का!

हम क्यों उदास? हों क्यों निराश?

जब सम्मुख हैं पुरुषार्थ-सार?

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम घर से निकले हैं गढ़ने

नव चंद्र, सूर्य, नव-नव अंबर,

नव वसुंधरा, नव जन-समाज

नव राज-काज, नव काल, प्रहर!

दिक्-काल नए, दिक्-पाल नए,

सब ग्वाल नए, सब बाल नए,

हम सिरजेंगे ब्रज भूमि नई,

गोपियाँ नई, गोपाल नए!!

क्यों आज अलस-भावना जगे,

जब आये हम हिय धैर्य धार?

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

मानव को नयी सुगति देने,

मानवता को उन्नत करने

हम आये हैं नर के हिय में,

नारायणता की द्युति भरने;

यह अति पुनीत, यह गुणातीत,

शुभ कर्म हमारे सम्मुख है;

तब नीच निराशा यह कैसी?

कैसा संभ्रम? अब क्या दुख है?

तिल-तिल करके यदि प्राण जायँ

तब भी क्यों हो हिय में विकार?

हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

यह काल, लौह लेखनी लिये,

लिखता जाता है युग पुराण;

हम सबकी कृति-निष्कृतियों का

उसको रहता है ख़ूब ध्यान;

इस ध्रुव इतिहास-सुलेखक को

कैसे धोका दें हम, भाई?

इससे बचने का, अपने को

कैसे मौक़ा दें, हम भाई?

मौक़ेबाज़ी चलेगी याँ,

यह ख़ाला का घर नहीं; यार,

है महाकाल निर्दय लेखक,

यह है विद्रोही दुर्निवार।

यह काल, लेखनी डुबो रहा

अमरों की शुभ शोणित-मसि में,

औ' उधर चढ़ रहा है पानी

उन निर्मम बधिकों की असि में!

क्यों सोचें, कब कुंठित होगी,

निर्दय, असि की यह प्रखर धार?

बचने की क्यों हो आतुरता?

क्यों टूटे यह बलि की क़तार?

यदि हम डूबें इस मृत्यु-घाट,

तो पहुँचेंगे उस अमर पार!

क्या भय? क्या शोक-विषाद हमें?

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम रहे भय के दास कभी

हम नहीं मरण के चरण-दास;

हमको क्यों विचलित करे आज

यह हेय प्राण-अपहरण-त्रास?

माना कि लग रहा है ऐसा,

मानो प्रकाश है बहुत दूर,

तो क्या इस दुश्चिंता ही से

होगा तम का गढ़ चूर-चूर?

हम क्यों करें विश्वास कि यह

टिक नहीं सकेगा तम अपार?

हम महा प्राण, हम इक उठान,

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

अपने ये सब बीहड़ जंगल,

अपने ये सब ऊँचे पहाड़,—

इक दिन निश्चय हिल डोलेंगे,

सिंहों की-सी करके दहाड़!

उस दिन हम विस्मित देखेंगे

यह निविड़ तिमिर होते विलीन,

उस दिन हम सस्मित देखेंगे :

हम हैं अदीन, हम शक्ति-पीन!!

उस दिन दुःस्वप्नों की स्मृति-सा

होगा बधिकों का भीम भार

उस दिवस कहेगा जग हमसे :

तुम विद्रोही, तुम दुर्निवार!

हम क्यों करें विश्वास कि ये

नंगे-भूखे भी तड़पेंगे?

धूएँ के छितरे बादल भी,

कड़केंगे, हाँ ये कड़केंगे!

जमकर होंगे ये भी संयुत,

ये भी बिजलियाँ गिराएँगे :

अपने नीचे की धरती का

ये भी संताप सिराएँगे;

ये भी तो इक दिन समझेंगे

अपने भूले सब स्वाधिकार;

उस दिन ये सब कह उठेंगे :

हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम कहते हैं भीषण स्वर से

मत सोच करो, मत सोच करो;

लख वर्तमान नैराश्य अगम,

अपने हिय को मत पोच करो;

तुम बहुदर्शी, तुम क्रांति-पथी,

तुम जागरूक, तुम गुडाकेश,

तुमको कर सका कभी विचलित

क्या गेह-मोह? क्या शोक-क्लेश?

देखी है तुमने क्षणिक जीत,

अविचल सह जाओ क्षणिक हार!

तुम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,

तुम विद्रोही, तुम दुर्निवार!!

स्रोत :
  • पुस्तक : स्वतंत्रता पुकारती (पृष्ठ 182)
  • संपादक : नंद किशोर नवल
  • रचनाकार : बालकृष्ण शर्मा नवीन
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2006

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