वर्षा-वर्णन

warsha warnan

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

वर्षा-वर्णन

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

     

    एक

    गगन में घन हैं घिरने लगे, मुदित चातक भी फिरने लगे।
    घट गया रवि-तेज कराल है, अब मनोहर पावस काल है॥

    दो

    अनल-सी जलती महि थी जहाँ, अब भरा जल ही जल है वहाँ।
    द्रवित भूमि हुई वह कर्कशा, स्थिर सदा किस की रहती दशा?

    तीन

    झुलस जो तरु थे तप से गए, लहलहे अब वे सब हैं भए।
    न अब आतप-ताप रहा कहीं, दुख बिना सुख है मिलता नहीं॥

    चार

    भर गए सलिलाशय रम्य हैं, विपुल पंकिल मार्ग अगम्य हैं।
    अवनि-आर्त्ति हुई सब दूर है, सुख हुआ सब को भरपूर है॥

    पाँच

    नव तृणों पर इंद्रवधू-गण, कर रहे अब यों छवि धारण—
    हरित वस्त्र मनों पहने मही, अरुण बूँद भली जिस पै रही॥

    छह

    गरजते नभ में  घन घोर हैं, कर रहे रव दादुर मोर हैं।
    चमकती चपला डरता हिया, फिर न क्यों कर मान तजें प्रिया?

    सात

    काली घटा में उड़ती बकाली, छटा दिखाती अपनी निराली।
    मानों खुले केश नभस्थली के, प्रसून हैं ये खिसके उसी के॥

    आठ

    मतंग से, शैल, तुंरग से कहीं, विहंग से, वृक्ष, कुरंग से कहीं।
    कहीं-कहीं दुर्गम दुर्ग से बने, विराजते हैं घन व्योम में घने॥

    नौ

    देते दिवाकर न दर्शन हैं सदैव
    तारे शशी-युत छिपे रहते तथैव।
    मानो हुए अब पयोद नभोवितान,
    होता न ज्ञात सहसा समय-प्रमाण॥

    दस

    मंदानिलाकुलित पत्र-समूहधारी,
    गाते जहाँ भ्रमर सुंदर शब्दकारी।
    उत्फुल्ल-पुष्प-परिपूर्ण कदंब-वंश,
    है हास्य-सा कर रहा प्रकट प्रशंस॥

    ग्यारह

    हैं रात्रि में निज प्रकाश-छटा दिखाते,
    अंगार से तिमिर के तनु में लगाते।
    मानो लता-द्रुम-विभूषण हैं सुहाते,
    खद्योत-वृंद कहिए, न किसे लुभाते?

    बारह

    जलद कर रहे हैं नम्र हो नीर-दान
    सतत बढ़ रहे हैं धान शोभा-निधान।
    सुखयुत करते हैं कोकिला-मोर गान,
    प्रमुदित निज जी में हो रहे हैं किसान॥

    तेरह

    पुलकित करते हैं स्पर्श से अंग अंग,
    स्व-सुमन-शर मानो मारता है अनंग।
    श्रमयुत हरते हैं स्वेद संताप-वृंद,
    जल-कण गिरते हैं व्योम से मंद मंद॥

    चौदह

    हुई शोभाशाली प्रकट हरियाली क्षिति पर,
    निराली शोभा है गिरिवर वनों का सुखकर।
    दिखाती वर्षा में प्रकृति नित जो दृश्य अपने,
    नहीं होते वैसे अपर ऋतु में प्राप्त सपने॥

    पंद्रह

    है मेघ-ध्वनि ही मृदंग जिसमें केकी-कला नृत्य है,
    केका,कोकिल-कूक गान जिस में होता तथा नित्य है॥
    झिल्ली की झनकार तार जिसमें है मंजु वीणा-ध्वनि।
    देती पावस है न मोद किसको यों नाट्यशाला बनी॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली-1 (पृष्ठ 253)
    • संपादक : कृष्णदत्त पालीवाल
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

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