शर्म कर लो

sharm kar lo

पीयूष मिश्रा

पीयूष मिश्रा

शर्म कर लो

पीयूष मिश्रा

और अधिकपीयूष मिश्रा

    ज़िंदा हो हाँ तुम कोई शक नहीं

    साँस लेते हुए देखा मैंने भी है

    हाथ औ’ पैरों और जिस्म को हरकतें

    ख़ूब देते हुए देखा मैंने भी है

    अब भले हो ये करते हुए होंठ तुम

    दर्द सहते हुए सख़्त सी लेते हो

    अब है इतना भी कम क्या तुम्हारे लिए

    ख़ूब अपनी समझ में तो जी लेते हो

    गहराती रातों में उठती कराहट को

    अंदर ही अंदर दबाते तो होगे

    अगली सुबह फिर बरसने को बेताब

    कोड़ों को दिल में सजाते तो होगे

    ज़माने की ठोकर को सह के सड़क पे यूँ

    चीख़ों को दिल में सजाते तो होगे

    ज़माने की ठोकर को सह के सड़क पे यूँ

    चीख़ों की ज़हमत उठाते तो होगे

    रोते से चेहरे पे लटकी-सी गर्दन का

    थोड़ा इज़ाफ़ा बढ़ाते तो होगे

    सोचा कभी है कि ज़िंदा यूँ रहने के

    मतलब के माने हैं कैसे कहीं

    ज़िंदा यूँ रहने के माने पे थूकें जो

    ज़िंदा यूँ रहने का मतलब यही

    बदबू को बलग़म को ख़ुशबू की मरहम

    बता के भरम में हो मल-मल रहे

    कीड़ा है वो संग कीड़ों की दुनिया में

    कीड़ा ही बन के जो हर पल रहे

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया (पृष्ठ 44)
    • रचनाकार : पीयूष मिश्रा
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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