ठिठकी स्मृतियाँ

thithki smritiyan

महेश चंद्र पुनेठा

महेश चंद्र पुनेठा

ठिठकी स्मृतियाँ

महेश चंद्र पुनेठा

और अधिकमहेश चंद्र पुनेठा

    मेरे गाँव के पास से गुज़रती हुई

    एक सड़क फैल रही है

    एक नदी सिकुड़ रही है

    इस फैलने और सिकुड़ने के बीच कहीं

    बचपन की स्मृतियाँ ठिठक रही हैं

    ठिठकी स्मृतियाँ ढूँढ़ रही हैं उन किनारों को

    जहाँ संगी-साथियों के साथ

    गाय-बछियों को चराया करते थे

    जहाँ मई-जून के तपते दिनों में भी

    झलुआ-काली-सेती

    ढूँढ़ लेती थी हरे घास के तिनके

    गाज्यौ-पराल-नलौ के अभाव में भी

    पल जाते थे गोठभर जानवर

    नहीं पड़ती थी चारा ख़रीदने की ज़रूरत।

    जहाँ मिल जाती थी

    सूखी लकड़ी और गोबत्योले

    जिनसे शाम तक भर लेते थे एक डोका या बोरी

    बन जाता था दो वक़्त का भोजन।

    जाड़ों के दिनों में

    हिसालू-किरमोड़े-घिंघारू की जड़ों को खोद

    बना लेते थे तापने के लिए

    लकड़ियों का ढेर

    ग़ज़ब की रांफ होती थी उनमें

    ह्यून की बारिश और बर्फ़बारी में

    उन्हीं का सहारा होता था।

    ठिठकी स्मृतियाँ ढूँढ़ रही हैं उन जगहों को

    जहाँ नदी का पानी रोक

    बना लेते थे एक अस्थायी ताल

    और जेठ की दुपहरी में

    घंटों डुबकियाँ लगाया करते थे

    एक-दूसरे पर पानी उलीचते

    ख़ूब मस्ती करते थे

    जहाँ पत्थरों के नीचे छुपी मछलियों को

    घेर कर पकड़ते थे

    शाम की सब्ज़ी का जुगाड़ हो जाता था।

    ठिठकी स्मृतियाँ ढूँढ़ रही हैं उन बंजर खेतों को

    जहाँ एक बड़ा पत्थर खड़ा कर

    अख़रोट के पेड़ से बने बल्ले

    और पुराने कपड़ों को सिलकर

    या पॉलिथीन गलाकर बनाई गई गेंद से

    क्रिकेट खेला करते थे

    प्यास से गला सूखने पर दौड़ पड़ते थे

    बंजर खेतों के किनारे में बने चुपटौले की ओर

    दोनों हथेलियों को मिला पानी से भर

    लेते थे लंबी घूँट

    कितना स्वादिष्ट लगता था पानी

    कोल्ड ड्रिंक से प्यास बुझाने वाले नहीं समझ सकते हैं

    सुपारी की तरह आँवले चबाने के बाद

    इस पानी का मीठापन आज भी भुलाए नहीं भूलता है।

    ठिठकी स्मृतियाँ ढूँढ़ रही हैं उस च्युरे के पेड़ को

    जिसके मकरंद भरे फूलों की ख़ुश्बू

    दूर से ही हमें अपने पास बुलाती थी

    बड़े चाव से चूसा करते उन फूलों को

    मन तक मीठा हो जाता उनके मकरंद से

    जिन दिनों च्युरे के फल पकते बीन-बीनकर खाते

    गुठली जमाकर घर ले जाते

    उसके बने घी से त्योहारों पर पकवान तलते।

    ठिठकी स्मृतियाँ ढूँढ़ रही हैं काले हिसालू की झाड़ी को

    जो उन दिनों भी एक-दो कहीं दिख जाती थी

    गुलाबी हिसालूओं के तोप्पों के बीच

    जिसका फल

    ऐसा फबता था जैसे गुलाबी चेहरे पर काजल का टीका।

    मगर ठिठकी स्मृतियों को

    भीमकाय मशीनों से

    दरकते पहाड़ों,

    टूटते पत्थरों

    और धूल-मिट्टी के बबंडर के बीच

    कुछ भी नहीं दिखाई देता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : महेश चंद्र पुनेठा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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