पूर्वरंग

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प्रियदर्शन

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    कुर्सियाँ लग चुकी हैं

    प्रकाश-व्यवस्था संपूर्ण है

    माइक हो चुके हैं टेस्ट

    अब एक-एक फुसफुसाहट पहुँचती है प्रेक्षागृह के कोने-कोने में

    तैयार है कालिदास

    बस वस्त्र बदलने बाक़ी हैं

    मल्लिका निहारती है अपने बादल केश

    तनिक अँधेरे ग्रीन रूम के मैले दर्पण में

    बेचैन है विलोम

    अपने हिस्से के संवाद मन ही मन

    दुहराता हुआ

    और सिहरता हुआ अपने ही प्रभाव से

    ख़ाली प्रेक्षागृह को आकर देख जाती है अंबिका

    अभी अँधेरा है मंच

    कुछ देर बाद वह यहीं सूप फटकारेगी

    और आएगी भीगी हुई मल्लिका

    लेकिन थोड़ी देर बाद

    अभी तो मंच पर अँधेरा है

    और सुनसान है प्रेक्षागृह

    धीरे-धीरे आएँगे दर्शक

    कुर्सियाँ खड़खड़ाती हुई भरेंगी

    बातचीत के कुछ टुकड़े उभरेंगे

    और सहसा मंद पड़ जाएँगे

    कोई पुरुष किसी का हाल पूछेगा

    कोई स्त्री खिलखिलाएगी

    और सहसा चुप हो जाएगी

    अपनी ही प्रगल्भता पर खुद झेंपकर

    नाटक से पहले भी होते हैं नाटक

    जैसे कालिदास बार-बार लौटकर जाता है

    मंच पर घूमता है ऑथेलो

    पुट आउट लाइट

    पुट आउट लाइट

    मैकबेथ अपनी हताशा में चीख़ता है

    बुझ जाओ नश्वर मोमबत्तियों

    प्रेक्षागृह की तनी हुई दुनिया में

    सदियाँ आती-जाती हैं

    दीर्घा की चौथी क़तार की पाँचवीं कुर्सी पर

    बैठी स्त्री छींकती है

    और सहसा एक कड़ी टूट जाती है

    सबके ऊपर से बह रहा है समय

    सब पर छाया है संवादों का उजास

    सबके हाथ सबके हाथों को छूते हैं

    नमी है और कँपकँपाहट है

    मंच पर ऑथेलो है

    मगर ऑथेलो के भीतर कौन है?

    कौन है जो उसे देख रहा है दर्शक-दीर्घा से

    और अपने मन की परिक्रमा कर रहा है

    क्या वह पहचान रहा है

    अपने भीतर उग रहे ईर्ष्यांकुर को?

    सबका अपना एकांत है

    सबके भीतर बन गए हैं प्रेक्षागृह

    सबके भीतर है एक नेपथ्य

    एक ग्रीन रूम, जिसमें मद्धिम-सा बल्ब जल रहा है

    और आईने पर थोड़ी धूल जमी है

    सब तैयार हैं

    अपने हिस्से के अभिनय के लिए

    सबके भीतर है ऑथेलो

    अपनी डेसडिमोना के क़त्ल पर विलाप करता हुआ

    विलोम से बचता हुआ कालिदास

    जो कर रहे हैं नाटक

    उन्हें भी नहीं है मालूम

    कितनी सदियों से चल रहा है यह शो

    तीन घंटों में कितने सारे वर्ष चले आते हैं

    जब परदा खिंचता है और बत्तियाँ जलती हैं

    तो एक साथ

    कई दुनियाएँ झन्न से बुझ जाती हैं

    नाटक के बाद

    कुर्सियाँ ख़ाली हैं

    छितराई हुई-सी

    मंच पर अँधेरा है

    हेमलेट के एकालाप अब अकेले हैं

    उन्हें कोई नहीं कह रहा कोई नहीं सुन रहा

    बेआवाज़ वे घूमते हैं ठंडे प्रेक्षागृह में

    पहली बार महसूस हो रहा है रात है

    और बाहर अँधेरा है

    और कोई नहीं चीख़ रहा है मंच पर

    कि मृत्यु की तरह भयंकर होती है कभी-कभी चुप्पी

    ढेर सारे शोर-शराबे के बाद

    ऐंठती-इठलाती छायाओं और मृदु मग्न तालियों के बाद

    नीली स्पॉटलाइट की स्निग्धता बुहार नहीं सकी है जिस दुःख को

    उसके बीत जाने के बाद

    अँधेरा है

    मृत्यु की तरह काला

    चुप्पी है

    मृत्यु की तरह भारी

    कोई दर्शक

    अभिनेता

    साज़िंदे वाद्य-वृंद

    कोई समय, कोई दुःख

    सिर्फ़ एक निर्वेद में

    साँस रोके लेटा है प्रेक्षागृह

    एक शव की तरह

    क्या पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में?

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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