टैक्सी स्टैंड

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संजय कुंदन

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टैक्सी स्टैंड

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    कभी भी सकता है

    कोई आदमी एक यात्रा के लिए

    किसी को भी करनी पड़ सकती है

    एक अनचाही और मनचाही यात्रा

    रात के इस आख़िरी पहर भी

    इसीलिए तो खुला हुआ है टैक्सी स्टैंड इस वक़्त भी

    एक छोटे-से तंबू में

    एक तख़्त पर मुस्तैद बैठे हैं सरदार जी

    पुश्तैनी और अनुभवी टैक्सी ड्राइवर

    वहाँ तार से लटक रहा है बल्ब

    तख़्त के पीछे एक स्टूल पर

    रखा है टेबल फ़ैन

    वहीं पीछे एक बल्ले से टँगी है

    गुरु नानक की तस्वीर

    जो रह-रह कर हिलती है

    हिलती है सरदार जी की दाढ़ी

    और पलकें भी

    रात के इस आख़िरी पहर

    एक चिड़िया सड़क पर पैदल चलती हुई

    दिखाई पड़ रही है

    हवा में उड़ती है नींद

    सरदार जी चुटकी बजाकर भगाते हैं नींद

    चुटकियों से ही भगाते हैं वे हर दुख

    संभव है अभी-अभी

    उतरना हो एक जीव को

    इस पृथ्वी पर

    और अपना बड़ा पेट सँभालते हाँफती हुई

    एक औरत पहुँचे केवल अपनी सास के साथ

    अस्पताल पहुँचने को आतुर

    किसी को पकड़नी हो सकती है

    चार बजे सुबह वाली ट्रेन

    सकता है कोई आदमी

    बड़ी-सी अटैची लिए

    नहा-धोकर तैयार महकते हुए

    आँवला तेल की तरह

    अपनी आख़िरी यात्रा के ठीक

    पहले की यात्रा के लिए भी

    सकता है कोई

    किसी के कंधे का सहारा लिए

    सब पता है सरदार जी को

    रात के गहरे अँधेरे में भी

    ज़रूरतें विश्राम नहीं लेतीं

    वह अचानक धमकती हैं

    दस्तक देती हुई

    हमें अस्त-व्यस्त करती हुई

    जबकि रोशनी कम है रात के इस वक़्त

    पूरा शहर एक ज़रूरतमंद आदमी की तरह

    साँस लेता दिख रहा है

    अब भी ख़त्म नहीं हुई है

    आदमी के भीतर की रोशनी

    अब भी बुझी नहीं है प्रतीक्षा

    एक आदमी के लिए एक आदमी के भीतर

    टैक्सी स्टैंड में प्रतीक्षारत हैं सरदार जी

    एक ज़रूरतमंद आदमी के लिए

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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