स्वप्न के विवर्त

swapn ke wiwart

श्रीराम वर्मा

श्रीराम वर्मा

स्वप्न के विवर्त

श्रीराम वर्मा

और अधिकश्रीराम वर्मा

    रीढ़ के भीतर दमामें

    खड़-खड़-भड़र-भड़र—

    गली में नहीं, छत के भीतर

    बजते, छेदते पोर-पोर

    चलते पहिये

    भारी दरेरते—

    हरहराते पुल के नीचे

    टपकती बूँदों ने सिहरन से

    जगा दिया।

    (छत चूती)

    रात भर

    खिसकाते खाट

    बिस्तर पर बाढ़

    चिड़ियाँ चहचहातीं

    कानों में

    (गुदगुदी)

    डिङ्-डाङ्-डिङ-डाङ्

    गुटुर-मुटुर सिकुड़ी देह के भीतर—

    (या दूर से) गजर—

    गुटुर-गुटुर,

    चहचह-चहचह :

    खुट-खुट, फुर्र,

    फड़फड़—

    कानों में

    कंटकित

    मुलायम रंगीन...

    (रोशनदान से कटखनी

    भर्र-भर्र तिरछी रोशनी—)

    दौड़ते-दौड़ते

    कस्तूरीमृग के पीछे

    लुढ़क पड़ा खाई में गहरे—

    बादलों के फाहे

    नाभिछूटे हाथ-से

    महकते।

    सीढ़ियाँ। गुदगुदी।

    जल शांत नीला। गदबदा।

    नाव हिलती चाँदनी की।

    पकड़ूँ-पकड़ूँ कि धँसता गया

    चिकने दरारदार गहरे में।

    पुरइन के पत्ते

    उठाए

    कमल के कँगूरे दो।

    कँगूरे पर टँके हुए भँवरे दो।

    साँस लेते साथ—

    हाथ बढ़ाकर थहाऊँ-थहाऊँ

    कि हरा कुहरा हटा

    सेवार की ओर सँड़

    फोड़ क्षितिज

    सहसा लपका—

    (धत्तेरे, ऊदी अँगुलियाँ!)

    जल रहा खलिहान।

    ''बुझाओ-बुझाओ।''

    —सपने में बर्राया बुलबुल तनेन।

    चौंककर जागी फुलचुही ने सुना : 'आओ'।

    उसने बुझा दी सरीहन जलती लालटेन।

    रोज़-रोज़ एक बिल्ली

    चढ़ती है छाती पर

    बकोटती-खरोंचती

    पैने पंजों से रोज़-रोज़

    बर्फ़ के नीचे दबी

    मछली तड़फड़ाती

    रोज़-रोज़ तली जाती

    तवे पर से कूद जाती

    आग में ख़ुद झोंक देती

    अपने को रोज़-रोज़

    घर हमारे ढह गए।

    दब गए हम।

    क्या करें, भूचाल ऐसा गया।

    (सीटियाँ सुनती छतें हिलतीं।

    बत्तियाँ चलतीं धुआँ देती चीख़ती।

    खड़खड़ बार्जे थरथराते।)

    उक़ाब-सा उड़ता,

    चीरता हिमाधियाँ,

    प्रसन्न नदियों में तैरता

    बजते रबाब-सा

    टकराकर चंद्रमा से

    गिरा और गड़ गया।

    चट्टान हो गया पैर

    —चलते-चलते सकते में।

    (एक उठता।

    ओनचन में फँसा अकड़ा

    दूसरा।)

    जंगली चींटियों के परों वाला

    एक सफ़ेद पौधा

    दौड़ता हुआ ऑफ़िस से घर तक चला आया

    साथ-साथ...

    कसता गया अंग-अंग

    धीरे-धीरे

    चूसता गया रोम-रोम।

    और फिर लौट गया

    ख़ून के बवंडर-सा—

    पीली-पोली-खड़खड़ाती

    हड्डियों का एक खंडर

    भरभराकर ढहा पड़ा—

    बुनी जाल-परछाईं पर

    वृत्तगंधी

    घुणाक्षर

    पड़ा सीला—

    मैं जा रहा हूँ

    गलने।

    तुम कहाँ हो?

    पैरों से छू गया

    ठोस ठंडा मुलायम

    यह किसका शव है?

    (फ़र्द में तेलउँस रुई

    इकट्ठी एक जगह!

    आह, जान बची।)

    दौड़ता-छटपटाता

    गँदला पानी...

    ऊपर एक पंखड़ी

    नाचती-तैरती

    लाल गुलाब की

    तँबियाई—

    “मत पकड़ो पप्पू,

    मणियर साँप है यह ज़हरीला।

    जाने दो। छेड़ो मत। काट लेगा।

    जाने दो।''

    “पापा, पैसा!

    (तारे-सा)

    कितनी तेज़ी से भाग रहा

    (चमकते रेडियम-सा)

    बिछल जाता (पारे-सा) बार-बार,

    मुट्ठी में आता नहीं।

    —गोली, टॉफ़ी, मालपुआ।

    पापा, पैसा!''

    छपक्-छपाक्ः

    मछुआरे बच्चे : टाप।

    पानी : मिनी ट्रेन—

    पंखड़ी : इंजन की रोशनी।

    “विद्रोह मत करो।

    मत करो विद्रोह।—

    बंजर में

    टाँग दो पलाश पर

    मशाल

    लिए कहाँ जाते हो?

    अजायबघर की सैर करो।''

    ''मारो साले को।

    दलाल कहीं का।

    पीठ में छुरी भोंक

    करता है मसीहाई।''

    उतरा गई पंखड़ी

    हँबियाई

    फिर नाचती-तैरती :

    ''—यह किसका कटा सिर है?''

    —बँट गए दिमाग़ से

    सपने में सन्निपात

    सच्चाई चिल्लाई—

    मैं भिश्ती से राजा

    हो गया हूँ सहसा।

    चमड़े के सिक्के,

    मशक की टकसाल,

    सारी मुद्राएँ अपनी।

    ख़ुशी के ज्वार में

    डूब गया खो गया।

    चाँद सा कहाँ गया।

    मेरा सिंहासन?

    (गर्दन लुढ़की पड़ी है एक ओर

    तकिये के—)

    चीख़-पुकार,

    कुहराम, शोर,

    लड़खड़ाती मुद्राएँ—

    युद्धों का अनंत विस्तार

    (भूँकते कुत्ते, रेंकते गधे,

    कुड़बुड़ाती सूअरें,

    दस्तकें

    गए रात

    थाप, सिटकनी का बजना,

    मार-पीट, गालियाँ

    मौलिक

    विलाप-आलाप)

    टूट गया रथ का यह पहिया भी।

    टूट गया।

    सहारा दे अपनी बाँहों का।

    कैकेई, दो क़दम आगे तो बढ़ने दे—

    (दब गया है हाथ—

    बाधबीच फँसी है अनामिका!)

    स्रोत :
    • पुस्तक : गली का परिवेश (पृष्ठ 79)
    • रचनाकार : श्रीराम वर्मा
    • प्रकाशन : पीतांबर प्रकाशन
    • संस्करण : 2000

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए