बहिष्करण

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सुघोष मिश्र

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सुघोष मिश्र

और अधिकसुघोष मिश्र

    मैं बाधा की तरह नहीं आया

    किसी के पास

    ही बना किसी के गले की फाँस,

    मैं भूखा भटकता था बदहवास

    शब्दों की राह पर नंगे पाँव

    तलाशता कोई रूप-रंग नंगी आँख।

    जब वे भाषा की इज़्ज़त उतारते दिखे

    मैंने उन्हें सिर्फ़ स्याही का मूल्य बताया—

    उन्होंने कहा उनके पास इतनी स्याही है

    जिससे शब्द क्या आदमी तक ऊब जाए!

    इतना कीचड़ कि भाषा तक डूब जाए!

    फिर शुभेच्छा क्या बधाई तक ख़ूब आए!

    मैं उनसे डरा नहीं इस अर्थ में पहचाना गया

    सिरफिरा शराबी हूँ ऐसे तो जाना गया

    शब्दों की राह पर पहचान भी एक पड़ाव है :

    अक्षरों के साथ वस्त्र तक छीन लेने वाले

    लुटेरों ने मुझे यह हँसते हुए बताया—

    वंचित के लिए रेखांकित होना भी एक उपलब्धि है,

    मेरी देह पर पड़ी खरोंचे देखकर

    कह उठे किनारे पड़े हुए अंधे और भिखारी दीन—

    सिर्फ़ आँखों और हाथ के साथ ज़िंदा रहना है कठिन।

    मैंने उनसे तमाशे दिखाने को नहीं कहा

    फिर भी क्रांतिकारियों की कलाबाज़ियाँ

    और कलावादियों की किलकारियाँ देख हैरान रह गया,

    उनसे और जाने किनसे भरसक बचता हुआ भागता रहा

    एक गड्ढे के मटमैले पानी में अपना ही चेहरा पहचान सका

    फिर वे इस भ्रम में रहे कि मुझे मार दिया गया

    मैं इस भ्रम में रहा कि मैं बाल-बाल बच गया

    किंतु एक जासूस था मेरे पीछे धूल पर पदचिह्न तलाशता हुआ

    एक सरकार थी जिसने मुझे पाँव काट लेने का सुझाव दिया।

    मैं बच जाने के बाद भी सुरक्षित रह सका

    आदर्शों और श्रेष्ठताओं से सनी गंदगियों में

    पक्षधरता तय करने से

    मुझे संदिग्ध बताया गया

    दिशाहीन क्रांतियों और खोखली नारेबाज़ियों के शोर में

    चुप रहने के अपराध में

    मुझे नज़रबंद कर दिया गया,

    एक मुरझाया फूल उठा कर सूँघ लेने पर

    मेरी नाक काट दी गई

    एक सूखे पत्ते को जेब में रख लेने पर

    मुझ पर चोरी का आरोप तय हुआ

    बेख़ुदी में प्रेम की गई एक स्त्री का नाम पुकार लेने पर

    मुझे चरित्रहीन कहा गया—

    किंतु मेरे हृदय से उसका तीन अक्षरों का नाम मिट सका

    उतने ही अक्षरों की क़लम और उँगली भी रह गई सही सलामत,

    मेरे तीन अक्षरों के इस व्यर्थ नाम के लिए

    दूर कुछ अकादमियों, संस्थाओं, और विश्वविद्यालयों में

    पर्याप्त स्याही पहले ही मौजूद थी…

    अफ़साने ज़रूरी हैं या अफ़सानानिगार

    पत्रिकाएँ ज़रूरी हैं या पत्रकार

    रास्ते ज़रूरी हैं या रोज़गार

    यह मैं भटकते हुए खो जाने पर समझ पाया

    जिन्होंने मुझे नफ़रत करना सिखाया

    उन्हें मैंने कोई क्षति नहीं पहुँचाई

    वे सिर्फ़ मेरे प्रेम से वंचित रहे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुघोष मिश्र
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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