सोई बिटिया

soi bitiya

सौरभ राय

सौरभ राय

सोई बिटिया

सौरभ राय

और अधिकसौरभ राय

    मेरी गोद में

    समुद्र भर आया है।

    गहरे समुद्रतल से सतह तक तैरती आईं

    उछलने को तैयार मछलियाँ

    तुम्हारी आँखों का कौतूहल है

    अपने अनमनेपन में जानती हैं जो—

    चाँद एक झुनझुने से बढ़कर कुछ नहीं है।

    तुम्हारे आने में कोई कविता नहीं थी

    काँप रहा था मैं

    घास की अकेली पत्ती जैसे काँपती है

    बारिश टूटने से पहले।

    अपने शहर में आगंतुक

    मैं लगातार दौड़ रहा था

    गिर रहा था धड़ाम-धड़ाम

    सड़क के गड्ढों में

    अस्पताल के बिस्तर पर

    बादलों के पीछे कहीं

    अट्ठारह घंटे प्रसव के बाद

    बाहर आया था तुम्हारा सिर

    बहुत साफ़ और नाज़ुक चीज़

    चेहरे पर ज़िद लिए

    और थकान

    और सुकून…

    तुम कमरे में सबसे छोटी थीं

    जिससे सब डरे हुए थे

    मुलायम गमछे में लिपटी

    अब तुम महफ़ूज़ हो

    दूध से भरी हुई

    डकारती, हिचकियाँ लेती

    बड़ी हो रही हो लगातार

    कनखियों से देखती हो मुझे

    पूछती हो उँगली पकड़कर

    मुझसे मेरा परिचय।

    मेरे हृदय में

    पेड़ उग आया है

    तितलियों की तरह मेरी बाँह में मँडरा रहे हैं

    तुम्हारे पैरों के निशान

    अपनी भाषा में समझा रही हो तुम मुझे

    कि तिलिस्मी कहानियों में

    जिन्न को क्या चाहिए होता है

    कि बिना आँसू बहाए रोना

    सबसे अच्छा रोना है

    कि इस ऊबड़-खाबड़ पृथ्वी में

    गोद से समतल जगह नहीं

    डोलते सिर पर

    टिकी रहती हैं एकटक आँखें

    घुमाती हुई दोनों हाथों की उँगलियाँ

    तुम हवा में बनाती हो टाइम-मशीन का ढाँचा

    जिसे आधा समझाकर

    सो जाती हो

    गीली मिट्टी की तरह

    मेरे हाथों में धँस गई है

    तुम्हारी नींद।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौरभ राय
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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