सोचना

sochna

सत्येंद्र कुमार

और अधिकसत्येंद्र कुमार

    जब देश का एक व्यक्ति इतना बड़ा हो जाए

    कि सारी संस्थाएँ छोटी पड़ जाएँ

    संसद बौनी दिखने लगे

    संविधान सिर्फ़ झूठी क़समें खाने की

    एक किताब मात्र रह जाए,

    जनता के द्वारा चुने बहुसंख्यक प्रतिनिधि

    राज-दरबार के चारण दिखने लगें

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    जब जनता झूठ पर मुग्ध हो

    मीडिया चौबीसों घंटे झूठ उगल रहा हो

    सच बोलने वाले जेल में हों

    हिंदुत्व की प्रयोगशाला से निकले पौधे

    घृणा के लहलहाते वृक्ष बन गए हों

    एक झंडा, एक गमछा, एक नारा

    कुछ में उन्माद पैदा करे

    कुछ को आतंक के साये में

    जीने पर मजबूर करें

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    जब शिक्षण-संस्थानों पर

    अपने पाले मोहरे बिठा दिए जाएँ

    विवेक ओर तर्क को अपराध

    घोषित कर दिया जाए

    सच को बेड़ियों से जकड़ दिया जाए

    जब कला-संस्कृति का बड़ा हिस्सा चारण बन जाए

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    ईसाइयों को ज़िंदा जला देने वाले

    मस्जिदों को ढहाने वाले

    आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन छीनने वाले

    पागल ग़ुंडों की फ़ौज तैयार कर

    सड़कों पर धार्मिक पहचान से जोड़ कर

    पीट-पीट कर मारने वाले

    जब समाज का गौरव बनने लगें

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    संसद में भय, कॉलेजों में भय, सड़कों, चौराहों पर भय,

    घरों की चहारदीवारी के भीतर भय,

    नदियों के सिकुड़ते जाने का भय,

    पहाड़ों के अस्तित्व के खो जाने का भय,

    जंगलों के ख़त्म हो जाने का भय…

    जब चारों ओर भय ही भय हो

    और सिर्फ़ एक नाम और एक नारे की युगलबंदी चल रही हो

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    जब मूर्तियाँ विचारों से बड़ी होने लगें

    एक व्यक्ति देश से बड़ा होने लगे

    सारी लोकतांत्रिक संस्थाएँ ग़ुलामों की शरणगाह बन जाएँ

    जब अपने ही जल, जंगल, ज़मीन को बचाने की लड़ाई को

    देश का ‘आंतरिक ख़तरा’ बता दिया जाए

    जब उनकी लड़ाई में शामिल बुद्धिजीवियों को

    देशद्रोही घोषित कर दिया जाए

    सच बोलने की सज़ा के तौर पर

    उन्हें ‘अर्बन नक्सल’ जैसे शब्दों से नवाज़ा जाए

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    जब हमारी साझी-संस्कृति को तार-तार किया जाए

    जब बहुसंख्यकवाद के नाम पर लंपटता का नंगा नाच हो

    जब संघर्षों की पूरी विरासत को नकारने की साज़िश चल रही हो

    जब देश के झंडे और संविधान का उपहास उड़ाने वाले,

    स्वतंत्रता-आंदोलन से भागे रणबाँकुरे,

    देश-प्रेम का पाठ पढ़ा रहे हों

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    जब भगवा तिरंगे का पर्याय बनने लगे

    जब ‘मनुस्मृति’ संविधान की जगह क़ाबिज़ होने लगे

    जब ‘ब्राह्मणवाद’ अपने निकृष्टतम रूप में जाल फैलाने लगे

    जब ‘बिरला हाउस’ में एक विचार की हत्या की जाए

    और हत्यारे को महिमामंडित किया जाए

    उसके मंदिर बनाए जाएँ

    जब फ़ाशीवाद लोकतांत्रिक मुखौटे के साथ,

    जनता के एक हिस्से को

    भेड़ बनाने की साज़िश रच रहा हो,

    जब वह परंपरा की अंधपूजा कर रहा हो

    जब वह आधुनिकता का निषेध कर रहा हो

    जब वह असहमति को राष्ट्रद्रोह मान रहा हो

    तब सचमुच देश को थोड़ा रुक कर सोचना होगा।

    दोस्तो!

    सोचना एक ऐसी क्रिया है

    जिससे सबसे ज़्यादा फ़ाशिस्ट ताक़तें ही घबराती हैं

    सोचना एक देश के होने को सिद्ध करता है

    सोचो! इससे पहले की बहुत देर हो जाए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए