स्मृति और विस्मृति

smriti aur wismriti

वियोगिनी ठाकुर

वियोगिनी ठाकुर

स्मृति और विस्मृति

वियोगिनी ठाकुर

और अधिकवियोगिनी ठाकुर

    स्मृति में कितनी बैलगाड़ियाँ दर्ज हैं अब तक

    कानों में गूँजती उनकी चरर-मरर

    वे कच्चे रास्ते, ढाक और काँस के वन

    बैलों की घंटियाँ, उनकी पदचापें

    इस जीवन में...

    चिता के साथ ही हो सकेंगी राख

    कितनी ही पीड़ाओं, चीत्कारों से भरा रहा संसार

    कि वह सब किसी मधुर स्मृति-सा आप ही

    सँजोए रहा मन

    यह भी तो निरा आश्चर्य!

    कितनी होती थीं कभी बाजरे की बालियाँ

    भिंडी के खेत, सोया के पात

    बेरियों से टपकता शीत, मकड़ी के जालें

    दाँत कड़कड़ाती ठंड में भी बहकता था सरसों

    हवा के वेग से हिलते थे पीपल के गुलाबी पात

    बाल्टी में गिरती दूध की धार से उफनता था झाग

    और साँझ-सवेरे चकटती थी आग

    और वह जाने कौन रुत रही होगी

    जो अब स्मृति और विस्मृति के बीच कहीं जा धँसी है

    जिसमें तिल की सूखी फलियों में भर जाते थे तिल

    और कान के पास हिलाने पर कान में बजते थे

    जिन्हें मैं मुँह में तंबाकू की तरह रखा करती थी

    मुट्ठी में भरने पर हाथ में चुभते थे धान के तींकुर

    और नथुनों में भरती थी पाथर के पीछे लगी

    कृष्णकली की गंध...

    और वे सिक्के जो नानी दिया करती थीं

    वे सिक्के ढूँढ़ता ही रहा है मन

    जो अब कहीं नहीं दीखते

    कहीं नहीं चलते

    मगर गड़े होंगे किसी ज़मीन के किन्हीं हिस्सों में

    किन्हीं सहस्राब्दियों बाद जो बताएँगे

    कभी हमारा भी इतिहास

    कितनी तो यात्राएँ रहीं,

    कितने रहे अंधकार

    कितने जंगली जीव देखे,

    जो अब कहीं नहीं दीखते

    इसी जीवन में कितने ही मानुख दीखे

    असल में जो सब कुछ हुए

    बस एक वही हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वियोगिनी ठाकुर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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