शहर की मूर्तियाँ

shahr ki murtiyan

संजय कुंदन

संजय कुंदन

शहर की मूर्तियाँ

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    ठीक आधी रात के वक़्त

    शहर के बीच चौराहे पर खड़ी

    एक मूर्ति फुसफुसाती रहती है

    संविधान... संविधान

    ठीक आधी रात के वक़्त

    जब एक भव्य ऐतिहासिक इमारत के

    वातानुकूलित कमरे में

    देश के भविष्य के संबंध में

    कुछ अहम फ़ैसले लिए जा रहे होते हैं

    एक मूर्ति के नथुने फड़क रहे होते हैं

    उसकी मुट्ठियाँ भिंची हुई होती हैं

    उस वक़्त एक मूर्ति हाथ जोड़े

    क्षमायाचना में झुकी होती है

    उस आदमी के सामने

    जो सोया होता है चबूतरे पर

    एक चादर और थोड़ी आस्था के बग़ैर

    शहर में किसी को नहीं मालूम

    कि चौराहे या पार्कों के बीचोबीच

    खड़ी मूर्तियों में पंख फड़फड़ाती

    रहती हैं बंधक आत्माएँ

    एक दिन एक मूर्ति से

    एक बूढ़ा निकलता है

    और दरवाज़े-दरवाज़े पूछता चलता है—

    क्या मेरी लाठी

    अब किसी के काम आएगी

    कोई नहीं सुन पाता

    उस औंधी पड़ी मूर्ति की सिसकी

    जिसकी उम्र को लेकर

    अक्सर होती है मारकाट शहर में

    वह औंधी पड़ी मूर्ति

    मन ही मन छेनी को याद करती है

    और गिड़गिड़ाती हुई कहती है

    —बदल डालो मुझे

    एक बेडौल चट्टान में

    कि दिखूँ आदमी जैसा

    तो ऐसा भी हो सकता है किसी दिन

    कि मुँहअँधेरे एक नट परिवार

    तंबू लपेटे, गट्ठर लादे

    निकल रहा होगा यात्रा पर

    तो अचानक शहर की मूर्तियाँ

    उन्हें घेरकर कहेंगी, ले चलो

    हम सबको इस शहर से बाहर

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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