शहर के बारे में

shahr ke bare mein

कुमार अनुपम

कुमार अनुपम

शहर के बारे में

कुमार अनुपम

और अधिककुमार अनुपम

     

    एक

    जिस शहर की रगों में
    नहीं बहती है कोई नदी
    उस शहर का 
    दिल से कोई रिश्ता नहीं होता।

    दो

    धूप में पकती निंबौरियों की मिठास 
    हवा को सौंधी स्वस्थ गमक से भर देती 
    पर, शहर से कहाँ ग़ायब हो गए
    नीम के सारे के सारे दरख़्त?

    तीन

    शहर में ऊँची-ऊँची इमारतें
    इमारतों की फुनगी पर बैठा हुआ कौआ
    देखता है नीचे और करता है अट्टहास
    कि देखो-देखो कितने तुच्छ दिख रहे हैं
    ज़मीन पर रेंगते हुए आदमी।

    चार

    शहर में दो तरह के प्राणी रहते हैं

    सफल कौवे
    और 
    असफल विक्षिप्त।

    पाँच

    एक दूरबीन निगाह रखती है पल-पल 
    सारे शहर पर 
    कौन कैसे हँसता है कितने इंच दाँत चियार 
    किसको आते हैं आँसू सचमुच के 
    किसकी यारबाश आदतें
    शहर के मानकों के लिए विध्वंसक 
    उन तथाकथित विक्षिप्तों की शनाख़्त
    युद्धस्तर पर जारी है।

    छह

    हँसो तो ऐसे जैसे बॉस हँसता है बेवजह 

    रोओ तो ऐसे जैसे सौंदर्य प्रतियोगिता का ताज 
    सिर पर पकड़ती खुनुकती है मिसवर्ल्ड

    गिरो तो ऐसे जैसे गिरती हैं
    अवैध रहनवारियाँ 
    उठो तो ऐसे 
    जैसे बीयर की बोतल से झाग उठता है
    शहर में जीवन की नई आचारसंहिता 
    उपलब्ध है हर शॉपिंग मॉल में
    किफ़ायती मूल्य पर आकर्षक ऑफ़र के साथ।

    सात

    जल्द ही 
    शहर अपनी अंधी रफ़्तार में भागता बेतहाशा 
    चला जाएगा अस्तित्व से इतना दूर कि समय 
    उसके चिह्न तक खोज न पाएगा अपनी स्मृति तक में

    मेरा शाप है।
    _______________________________________________
    उस शख़्स की डायरी में निम्नलिखित पंक्तियाँ दर्ज मिली जिसे शहर द्वारा विक्षिप्त घोषित कर दिया गया था और शहरबदर की सज़ा सुनाई गई थी कि उसके पास लिखने की ज़रा क़ाबिलियत थी, वह पान का खोखा लगाता था, अपने बीवी-बच्चों के साथ दाल-भात-प्याज़ खाता था और अपनी बेपनाह बनारसी हँसी से भिगो देता था पूरा का पूरा शहर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बारिश मेेरा घर है (पृष्ठ 22)
    • रचनाकार : कुमार अनुपम
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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