पच्चीस साल लंबी कविता

pachchis sal lambi kawita

अनिल जनविजय

अनिल जनविजय

पच्चीस साल लंबी कविता

अनिल जनविजय

और अधिकअनिल जनविजय

     

    गगि के लिए

    वर्ष 1977

    हरे सलवार-कुर्ते में
    तुम आईं उस दिन
    और मैं पुस्तकालय के
    बाहर खड़ा था
    तुमने मुझसे मिलने का
    वायदा जो किया था
    सिर तुम्हारा उस समय
    हरी चुन्नी से ढका था

    तुम आईं मेरे पीछे से
    और धीमे से पुकारा
    अनि... अनि...
    सुनकर भी जैसे अनसुना
    कर दिया मैंने
    मैं तुम्हारे ध्यान में
    मग्न बड़ा था

    तुमने मुझे लाड़ में
    हौले से कौंचा
    मुड़कर जो देखा मैंने तो
    हो गया भौंचक
    वृक्ष जैसे पीछे कोई
    मोती जड़ा था

    वर्ष 1978

    उस दिन तुम
    नाराज़ थीं मुझसे बेहद
    मैंने तुम्हारे साथ
    एक गुस्ताख़ी जो की थी
    बंद कर ख़ुद को
    एक कोठरी में तुमने
    मुझको उस बेअदबी की
    सज़ा-सी दी थी

    बहनें तुम्हारी और भाई
    साथ थे मेरे
    हम हँस-मचल रहे थे
    उस कोठरी को घेरे
    पराठे बना रहे थे
    और खा रहे थे हम
    इस तरह तुम्हें प्यार से
    चिढ़ा रहे थे हम
    तुम भूखी जो चली गई थीं
    कॉलेज उस सवेरे

    वर्ष 1979

    कई सहस्र
    स्वप्नों के बीच
    एक सपना वह
    था नितांत अपना वह

    देखा मैंने—
    धीरे से एक अणु उतरा
    चिपक गया उससे आ डिंब
    फिर उभरा उनके पीछे से
    हम दोनों का मिश्रित प्रतिबिंब

    वर्ष 1980

    एक दिन
    एक चित्र बनाऊँगा मैं
    और उसका नाम रखूँगा
    सुनहरी धुंध

    उसमें 
    मैं होऊँगा
    तुम होगी
    और होंगे ढेर सारे बच्चे

    पतझर के
    पीले सूखे पत्तों पर
    लेटे होंगे हम
    पूरी तरह सुखी

    वर्ष 1981

    तुम्हारे जन्मदिन पर
    हँसे हवा
    हँसे फूल
    हँसे पृथ्वी
    जल, ऋतु, अंतरिक्ष
    हँसे सितारे, हँसे कूल
    और इनके साथ-साथ
    हँसो मेरी तुम
    हँसे तुम्हारा दुकूल

    वर्ष 1982

    आज, अभी, इस क्षण
    बहुत उदास है मन

    जैसे हृदय पर कोई
    मार रहा हो घन

    कहाँ गई वो रूपा
    जिसका नाम गगन

    छूट गया सब पीछे
    हार गया हूँ रण

    पर अब भी बाक़ी है
    दुनिया में जीवन

    वर्ष 1983

    रहा नहीं जाए तुम बिन
    दिन कटते हैं गिन-गिन

    याद तुम्हारी आए
    भूल न पाऊँ पल-छिन

    तुम बिन मीन-सा तड़पूँ
    मन में दहके अगिन

    रातों नींद न आए
    यह कैसी लागी लगिन

    जीवा तुमसे लागा
    टूट न पाए बंधिन

    इसी आस में जीवूँ
    हम मिल पाएँगे कभिन

    वर्ष 1984

    ओ नभरेखा! ओ नभबाला!
    ग़ुस्से में यह क्या कर डाला

    चाहत तेरी बूझ रहा था
    प्रेम मुझे भी सूझ रहा था
    पर वे दिन भी क्या दिन थे
    मैं रोटी से जूझ रहा था
    मन में थी बस इतनी इच्छा
    मिल जाए मुझे भी एक निवाला

    रोष में थी तू दहाड़ रही थी
    लपटों-सी फुफकार रही थी
    ईर्ष्या में तू उन्मत्त थी ऐसे
    मुझ अधमरे को मार रही थी

    मैं आज भी सोचूँ क्या हुआ ऐसा
    भला मैंने ऐसा क्या कर डाला?

    वर्ष 1985

    उस दिन जब मैंने तुमको देखा
    तुम खिली-खिली थीं
    मानो तुमको कारूँ का ख़ज़ाना
    मिल गया हो
    मुझसे इतने समय बाद भी
    ऐसे हिली-मिली थीं
    कह सको मन की बात तुम जिसे
    वह साथी मिल गया हो

    तुमने मुझे बताया कि तुम
    अब पत्रकार हो
    हवा में उड़ रही हो
    घोड़े पर सवार हो
    जल्दी ही तुम किसी बड़े
    लेखक से विवाह करोगी
    पर मैं हूँ मित्र तुम्हारा अन्यतम
    मुझसे पहले-सी ही मिलोगी

    तुम डूबी थीं गहन प्रेम में
    अपने उस भावी पति के
    और मैं डूबा था तुम में
    न कि तुम्हारे आश्चर्यलोक में
    तुम बोल रही थीं लगातार
    बस अपनी ही झोंक में
    पर मुझे नहीं लेना-देना था कुछ
    तुम्हारे उस यति से

    वर्ष 1986

    न भूला था
    न भूला हूँ
    न भूलूँगा

    जब
    मन होगा
    कविता में तुम्हें
    छू लूँगा

    वर्ष 1987

    समय के उस पार
    खड़ी थीं तुम
    मैं समय के इस पार था
    बीच हमारे
    नभ-वितान अपार था

    तुम थीं
    उस लोक की वासी
    मैं इस लोक में प्रवासी
    बीच हमारे
    बस स्नेह-दुलार था

    तुम गगन
    रति-मति की अवतार
    मैं अनिल
    हठी-गति का विस्तार
    बीच हमारे
    अब अलंघ्य पहाड़ था

    वर्ष 1990

    दिन पतझड़ का
    पीला-सा था झरा-झरा

    छुट्टी का दिन था
    वर्षा की झड़ी से भीग रहा था मस्क्वा
    चल रही थी बेहद तेज़ ठंडी हवा
    ख़ाली बाज़ार, ख़ाली थीं सड़कें
    जैसे भूतों का डेरा
    ख़ाली उदास मन था मेरा

    तुमको देखा तो झुलस गया तन
    झुलस गया मन
    बिजली चमकी हो ज्यों घन
    लगने लगा फिर से जीवन यह भरा-भरा

    तुम आईं तो आया वसंत
    दिन हो गया हरा

    वर्ष 1999

    तुम गाती हो
    गाती हो जीवन का गीत
    और धूप-सी खिल जाती हो

    तुम गाती हो
    गाती हो सौंदर्य का गीत
    और फूल-सी हिल जाती हो

    तुम गाती हो
    गाती हो प्रेम, मीत मेरी
    और रक्त में मिल जाती हो

    मैं चाहूँ यह
    तुम गाओ हर रोज़ सवेरे
    कोई समय हो
    हँसी हमेशा रहे तुम्हें घेरे

    वर्ष 2000

    दिन कविता का था
    साहित्य अकादेमी सभागार में
    तुमने कविताएँ अच्छी पढ़ी थीं
    मेरे विचार में
    कविता-पाठ के बाद अचानक
    तुम आईं मेरे पास
    कैसे हो, अनि...?
    कहाँ हो तुम अब...?
    —पूछा तुमने सहास

    मैंने कहा—
    क्या कहूँ मैं तुमसे
    कहाँ है मेरा डेरा
    वैसा ही हूँ जैसा तब था
    वैसा ही जीवन
    संबंध अजब-सा
    कविता से मेरा
    तुम भी तो हो वैसी की वैसी
    ओ जादू की गुड़िया
    पहले भी थीं, अब भी हो तुम
    कविताओं की पुड़िया

    वर्ष 2001

    मैं आज भी अफ़सोस में हूँ
    रोष में हूँ

    तुम आई थीं आशा लेकर
    मौन होंठों की भाषा लेकर
    मुझसे चाहा था बस इतना
    मेरा अंश परमाणु जितना
    वो भी तुमको दे न पाया

    मैं बेहद संकोच में हूँ
    सोच में हूँ

    आज वह अंश विस्फोटक होता
    गर मेरे सामने औचक होता
    होता यदि वह प्रतिलिपि तुम्हारी
    उसे देख मैं भौंचक होता
    पर अब है यह सपना-माया

    शायद मैं कुछ जोश में हूँ
    होश में हूँ

    वर्ष 2002

    तेरी कविता में तुझको देखा
    तू कितनी बदल गई नभरेखा

    पहले थी तू चंचल बाला
    जीवन दे वो अर्क निराला
    उन वर्षों ने तुझ को बदला
    दिया मुझे जब देश निकाला

    अब तू कातर पीड़ा की छाया
    और जीवन का दर्द तमाम
    तू हिंदी कविता की अख़्मातोवा
    और मैं उसका कवि मंदेलश्ताम

    लिखती कविता में जीवन-लेखा
    तू कितनी बदल गई नभरेखा

    स्रोत :
    • पुस्तक : साक्षात्कार 275 (पृष्ठ 50)
    • संपादक : भगवत रावत
    • रचनाकार : अनिल जनविजय

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