सपने

sapne

सपने थे

सपनों में भी सपने थे

सपने इतना उलझे थे

एक दूसरे में कि

एक सपने में बारिश होती थी

और दूसरे में हमारे कपड़े गीले हो जाते थे

और उन्हें हम सुखाते थे

किसी तीसरे सपने की धूप में

इतना कम विभेद था

सपनों और जीवन में भी

कि लू शुन की कहानी की तितली

और मिथिला का कोई राजा

एकसाथ स्मृतियों में घुस आते थे

और कभी-कभी तो यह भी होता था

कि यह स्मृति भी तब्दील होती थी

एक नए नकोर सपने में

और लू शुन की कहानी की तितली

समयों और दूरियों को एक साथ पार करती

मिथिला के राजा के काँधे पर आकर बैठ जाती थी

उसके पीले पंखों के हिलने में जो एक लय थी

लगता यह था कि वही है

सपनों और जीवन का एकांतर परिवर्तन

चौहद्दियों को लाँघता हुआ

सब कुछ घुल-मिल जाता था

इतना इतना इतना

कि मुश्किल था तय कर पाना

यह कि जीवन झाँकता है

सपनों के किवाड़ की झिर्री से

या जीवन की खिड़की से दिखती है

सपनों की छाया भर

पन इतना तो तय था

कि हम जीवन में मर जाते थे

और जी उठते थे सपने में

जीवन हमारी हत्या करता था

उसके हाथ सने थे रक्त से

और कोई सफ़ेद सपना था जो जिलाता था हमें

सहलाता और दुलारता हुआ अपनी नरमाई से

सपने थे

बहुत सारे सपने थे

और वे बस हमारे ही पास नहीं थे

सबके पास थे

जैसे एक पूर्व राष्ट्रपति के सपनों में

इंडिया 2050 था

नैनो बायो टेक्नालॉजी थी

मिसाइल थी अर्थशास्त्र था

शिक्षा थी प्रगति थी

गाँव में उगता स्काइस्क्रैपर था

सपनों में भी फ़ुरसत नहीं थी

सपनों में भी नहीं थी छाँह

बहुत थका देने वाले सपने थे उनके

वे देश को बदल देना चाहते थे

जल्दी से एक कॉर्पोरेट ब्रांड में

दरअसल जो साफ़ तौर पर ग़ुलामी है

उनके लिए वही मुक्ति थी

एक शिक्षाविद के भी सपने थे

जो किसी अनजान भय से

परसाई की किसी कहानी से भाग आया था

वह जब हँसता था तो

उसके साथ साथ हँसती थी उसकी मूँठ

और सामने वाला

एक लिजलिजी वितृष्णा से भर जाता था

पर सामने से मुस्कुराता था कहते-कहते

हाँ सर! बिल्कुल सर!

उसके सपनों में शिक्षा की नई शक्ल थी

मगर आस्तीनों और पाँयचों में सामूहिक नक़ल थी

उसके सपनों में अकादमिक वसंत में लहलहाती

नई पौध की गंध थी

जबकि सच में किसी भ्रष्ट पपड़ी की वजह से

ज़माने से उसकी नाक बंद थी

मुश्किल बस इतनी थी

उसके सपनों में हमेशा उसे एक पूँछ उग आती थी

उसके पिछवाड़े पर

और सपनों में जब वह हँसता था

तो मूँछ के साथ पूँछ भी हँसती थी

वह रोज़ अपने दरबारियों से इसका अर्थ पूछता था

और वे जवाब में बस उसकी हँसी के साथ हँस देते थे

कैसे बताते कि उनके भी अपने सपने हैं

जिनमें किसी की पूँछ में तब्दील होते जाने का एक भय है

और उससे भी ज़्यादा किसी के पिछवाड़े पर रोप दिए जाने का

यह कि दरअसल उनका हँसना ही पूँछ का हँसना है

और यह भी कि दरबारी अपना सपना बता देते सच-सच

तो सपनों में पूँछ के होने की आशंका ख़त्म करने के लिए

उन्हें हलाल भी तो किया जा सकता था

इस तरह उन्होंने जीवन के भय के ऊपर सपनों के भय को चुना

और शांत रहकर शिक्षाविद के हर प्रलापालाप को सुना

इसी बोध का असर था कि उनके सपनों में सफलता थी

और असफलता चुपचाप अपना सामान उठाकर

हमारे सपनों में शरणागत हो गई थी।

होने नहीं चाहिए थे शायद पर

शिक्षकों के भी सपने थे

उनके दुनियावी सपनों को तो पहले ही

तनख़्वाही पंख लग चुके थे

फिर भी बचे ही थे कुछ रहस्यमय सपने

जिन्हें वे किसी दार्शनिक फफूंद से बचाते थे

इतिहास के अहाते में धूप दिखाते हुए

जैसे वे एक मरती हुई भाषा के नांद में

दिन-रात मुँह दिए जुगाली करते हुए

शब्दों के वैभव का सपना देखते थे

नए और साफ़ आसमान का सपना देखते हुए भी

उनकी तंद्रा में कॉपियों के उड़ते हुए हंस थे

उनके चेहरों पर हमेशा एक किताबी नूर की बारिश थी

फिर भले ही जुराब की किसी पर्ची में सिफ़ारिश थी

एपीआई का तिलिस्म था उनके सपनों में

फिर सेमिनार, प्रोजेक्ट और पर्चों के चोर दरवाज़े थे

जिनमें वे घुसते थे और अनजान बरामदों में घूमते थे

और फिर-फिर उसी जगह निकलते थे

उनेस पूछे जाने पर वे बड़ी आसानी से कह सकते थे

कि दरअसल वे जहाँ हैं वहाँ होना उनका सपना नहीं था

कम से कम जिस तरह हैं उस तरह तो नहीं

और चूँकि यहाँ और इस तरह वे नहीं होना चाहते थे

तो वे कहीं भी और किसी भी तरह हो सकते थे

कभी कभी होने या होने का यही अहसास

लगभग सबके सपनों में एक तरह का खटका था

यथार्थ वहीं कहीं अटका था

स्रोत :
  • पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 122)
  • रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2016

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