मैं महसूस करती हूँ

main mahsus karti hoon

समृद्धि मनचंदा

समृद्धि मनचंदा

मैं महसूस करती हूँ

समृद्धि मनचंदा

और अधिकसमृद्धि मनचंदा

    मैं महसूस करती हूँ

    अपनी आत्मा में

    सरक आई

    धूप को

    मैंने एक नदी से सीखा है

    प्रेम का तत्त्व

    एक दरख़्त से जाना

    छाँह की अनुपस्थिति को भरना

    जब पर्वतों के संसर्ग से

    शब्द प्रतिध्वनि बनकर लौटा

    मैं बूझ पाई

    भाषा की दरिद्रता

    मुझे

    मेरे पाँवों ने दिया

    दुःख से थिरकने और

    सुख में ऊँघने का बोध

    मैं अपने गर्भ में

    ईश्वर को महसूस करती हूँ

    वह निर्लेप प्रार्थनाएँ

    बड़बड़ाता है

    मुझे उसे सिखलाना होगा

    नदी दरख़्त पर्वत

    और पाँवों-सा

    आस्थावान होना

    देखो! मेरी पीठ पर

    धूप और बारिश के निशान हैं

    यही है ईश्वर के चाबुक से निकली

    सबसे निर्मल चोट

    मेरी आत्मा जानती है

    एक साथ ही भीग जाने और

    सूखने का आश्चर्य

    वह अब एक नौका का ध्यान करती है—

    दिन-रात।

    स्रोत :
    • रचनाकार : समृद्धि मनचंदा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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