गतिहीन जीवन की मतिहीन कविता

gatihin jiwan ki matihin kawita

लवली गोस्वामी

लवली गोस्वामी

गतिहीन जीवन की मतिहीन कविता

लवली गोस्वामी

और अधिकलवली गोस्वामी

    तुम्हारी पाषाण सतह पर जहाँ-जहाँ भी नमी रह जाती है

    रौशनी की नज़र से ओझल ज़रा-सा अँधेरा बचा रहता है

    हर उस जगह पिछली बारिश की स्मृति-सी

    मखमली हरी काई बनकर उगती हूँ मैं

    मेरा जन्म एक स्मृति का अभिशाप है

    जिसमें पानी और अंधकार बराबर मिले हुए हैं

    कहते हैं अगर नमक को यूँ ही बेकार में ज़ाया करो

    तो मरने के बाद सज़ा के तौर पर उसे

    पलकों और बरौनियों से बीनना पड़ता है

    ज़िंदगी जीती जाती हूँ और सोचती जाती हूँ

    आँखों और नमक का रिश्ता

    सोचती हूँ मैंने जाने कितने महासागरों का नमक ज़ाया किया था

    कि बीनने के लिए मेरी देह में हर जगह आँखें उगीं?

    मेरी बाँसुरी दरक गई है लेकिन मन अबोध बालक की तरह

    उसमे सुर फूँकने की कोशिश करता है

    होते हैं कई सुख जो हँसाते-हँसाते रुला जाते हैं

    होते हैं कई दुःख जो जीवन भर की हँसी चुटकियों में मसल कर

    हथेलियों में एक भुरभुरी मुस्कुराहट थमा जाते हैं

    दुनिया जितनी दिखती है उससे अधिक अजीब है

    मसलन, मौसमों को भी आता है रंगों में बात करना

    गर्मियों की आग गुलमोहर और अमलताश बरसाते हैं

    सर्दियों की ठिठुराती बर्फ़ बेला कुल के सब सफ़ेद फूल लेकर आते हैं

    धूप बची रहती है अचार और पापड़ के स्वाद में

    सर्दी की कँपकँपी ऊनी कपड़ों के गठ्ठर में छिपी होती है

    बारिश की स्मृति सिर्फ़ बाढ़ नहीं है हरियाली भी है

    बूँदें बरस कर रीत जाए तब भी बची रह जाती हैं

    झबरे जानवरों में फ़र में

    पक्षियों के पंखों की परत में

    घने पेड़ों के हरे पत्तों की दराज़ों में

    टपकती छतों में, टूटे छप्पर में

    ताप की गठरी बना दुपहर का सूरज जब सिर के ऊपर हो

    तब ख़ुद अपनी परछाई काया भेदकर

    धरती में प्रवेश करने की कोशिश करती है

    मैंने हर काया को कहा कि वह अपनी छाया से सावधान रहे

    मैंने देखा कुछ बेहद तार्किक लोग कवियों को पीट-पीट कर मारना चाहते थे

    उनका कहना था तारों के झुंड को कविता ने नक्षत्र बना दिया

    इससे ठगों की ज्योतिषगीरी चल निकली

    किसी को किसानों और राहगीरों को नक्षत्रों से होने वाली सहूलियत याद आई

    कविता बेचारी इतनी अतार्किक चीज़ थी

    कि अपने बचाव में कोई तर्क पेश कर पाई

    चुप रहना मेरी मजबूरी थी, मेरा फ़ैसला

    मुझे कम शब्दों में बात कहने का हुनर आया

    शब्द जमा करते-करते जवाब देने का समय निकल गया

    मैं कम थी, दुनिया

    मुझे कभी घमंडी या मूर्ख समझे जाने अफ़सोस हुआ

    दुनिया ने यह मानकर छुट्टी ली

    कि ऑब्जेक्टिव सवालों के दौर में

    यह पैराग्राफ़्स में जवाब देने वाली मूर्ख है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : लवली गोस्वामी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए